उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में है भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि इसका ना केवल राष्ट्रीय स्तर पर महत्व है, बल्कि वैश्रि्वक स्तर पर जनपद मथुरा भगवान श्री कृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहां प्रतिदिन दर्शनार्थी आते हैं।
आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहां प्रतिदिन आते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को विश्व में बहुत बड़ी संख्या में नागरिक आराध्य के रूप में मानते हुए दर्शनार्थ आते हैं।
यहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी इहलौकिक लीला संवरण की। वहीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की जन्मस्थली का भी महत्व स्थापित किया। यह कंस का कारागार था, जहां वासुदेव ने भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की आधी रात अवतार ग्रहण किया था। आज यह कटरा केशवदेव नाम से प्रसिद्व है। यह कारागार केशवदेव के मन्दिर के रूप में परिणत हुआ। इसी के आसपास मथुरा पुरी सुशोभित हुई। यहां कालक्रम में अनेकानेक गगनचुम्बी भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ। इनमें से कुछ तो समय के साथ नष्ट हो गये और कुछ को विधर्मियों ने नष्ट कर दिया।
प्रथम द्वार-
ईसवी सन् से पूर्ववर्ती 80-57 के महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि किसी वसु नामक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक मंदिर तोरण द्वार और वेदिका का निर्माण कराया था। यह शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है।
द्वितीय मन्दिर
दूसरा मन्दिर विक्रमादित्य के काल में सन् 800 ई. के लगभग बनवाया गया था। संस्कृति और कला की दृष्टि से उस समय मथुरा नगरी बड़े उत्कर्ष पर थी। हिन्दू धर्म के साथ बौद्ध और जैन धर्म भी उन्नति पर थे। श्रीकृष्ण जन्मस्थान के संमीप ही जैनियों और बौद्धों के विहार और मन्दिर बने थे। यह मन्दिर सन् 1017-18 ई. में महमूद ग़ज़नवी के कोप का भाजन बना। इस भव्य सांस्कृतिक नगरी की सुरक्षा की कोई उचित व्यवस्था न होने से महमूद ने इसे ख़ूब लूटा। भगवान केशवदेव का मन्दिर भी तोड़ डाला गया।
तृतीय मन्दिर-
संस्कृत के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि महाराजा विजयपाल देव जब मथुरा के शासक थे, तब सन् 1150 ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक नया मन्दिर बनवाया था। यह विशाल एवं भव्य बताया जाता हैं। इसे भी 16 वीं शताब्दी के आरम्भ में सिकन्दर लोदी के शासन काल में नष्ट कर डाला गया था।
चतुर्थ मन्दिर-
जहांगीर के शासन काल में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर पुन: एक नया विशाल मन्दिर निर्माण कराया ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जू देव बुन्देला ने इसकी ऊंचाई 250 फीट रखी गई थी। यह आगरा से दिखाई देता बताया जाता है। उस समय इस निर्माण की लागत 33 लाख रुपये आई थी। इस मन्दिर के चारों ओर एक ऊंची दीवार का परकोटा बनवाया गया था, जिसके अवशेष अब तक विद्यमान हैं। दक्षिण पश्चिम के एक कोने में कुआं भी बनवाया गया था इस का पानी 60 फीट ऊँचा उठाकर मन्दिर के प्रागण में फब्बारे चलाने के काम आता था। सन् 1669 ई. में पुन: यह मन्दिर नष्ट कर दिया गया और इसकी भवन सामग्री से ईदगाह बनवा दी गई जो आज विद्यमान है।
जन्मस्थान का पुनरुद्वार-
सन 1940 के आसपास की बात है कि महामना पण्डित मदनमोहन जी का भक्ति-विभोर हृदय उपेक्षित श्रीकृष्ण जन्मस्थान के खण्डहरों को देखकर द्रवित हो उठा। उन्होंने इसके पुनरूद्वार का संकल्प लिया।
जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना 1951 में हुई थी। मथुरा के राजा कंस के जिस कारागार में वसुदेव-देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने जन्म-ग्रहण किया था, वह कारागार आज कटरा केशवदेव के नाम से ही विख्यात है और इस कटरा केशवदेव के मध्य में स्थित चबूतरे के स्थान पर ही कंस का वह बन्दीगृह था, जहां अपनी बहन देवकी और अपने बहनोई वसुदेव को कंस ने कैद कर रखा था।