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 कश्मीर में नफरत, हिंसा के बीच सद्भाव-भाईचारे की उम्मीद (आईएएनएस विशेष) | dharmpath.com

Tuesday , 22 April 2025

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कश्मीर में नफरत, हिंसा के बीच सद्भाव-भाईचारे की उम्मीद (आईएएनएस विशेष)

श्रीनगर, 5 अगस्त (आईएएनएस)। प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त राजनाथ (72) उत्तर कश्मीर स्थित मणिगाम में पैदा हुए और वह तब से अपने पैतृक गांव में ही रहते हैं। अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित समुदाय के उनके परिवार के अधिकांश सदस्य 1990 के दशक में घाटी में मचे उत्पात के कारण गांव से पलायन कर गए, लेकिन राजनाथ अपनी पत्नी और बेटी के साथ अपनी जन्मभूमि पर ही टिके रहे।

श्रीनगर, 5 अगस्त (आईएएनएस)। प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त राजनाथ (72) उत्तर कश्मीर स्थित मणिगाम में पैदा हुए और वह तब से अपने पैतृक गांव में ही रहते हैं। अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित समुदाय के उनके परिवार के अधिकांश सदस्य 1990 के दशक में घाटी में मचे उत्पात के कारण गांव से पलायन कर गए, लेकिन राजनाथ अपनी पत्नी और बेटी के साथ अपनी जन्मभूमि पर ही टिके रहे।

राजनाथ हिंदू हैं और उनको अपने पड़ोसी मुसलमानों की सद्भावना पर काफी भरोसा है। इनमें नई पीढ़ी के ज्यादातर लोग उनके विद्यार्थी हैं।

यही कारण है कि स्थानीय मुसलमानों ने राजनाथ की बेटी को निजी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी हासिल करने में उनकी मदद की।

इलाके के मुसलमान न सिर्फ राजनाथ के, बल्कि वहां घाटी में मुस्लिम समुदाय के बीच निवास करने वाले 3,000 कश्मीरी पंडितों के भी मददगार रहे हैं।

उनकी मैत्री इस रिवायत को नकारती है कि पंडितों का घाटी से पलायन मुस्लिम बहुल इलाके में उनके ऊपर हुए अत्याचार के कारण हुआ।

अभी दो महीने ही हुए हैं जब इलाके में एक बुजुर्ग पंडित का देहावसान होने पर स्थानीय मुसलमान उनका अंतिम संस्कार करने के लिए उनकी अर्थी उठाकर शमसान घाट गए थे। मुस्लिम समुदाय के लोगों ने पूरी तरह हिंदू रीति के अनुसार दिवंगत आत्मा का अंतिम संस्कार करवाया।

यही नहीं, पड़ोस की महिलाओं ने न सिर्फ शोक संतप्त परिवार को सांत्वना दी, बल्कि उनके खुद के बीच भी शोक का माहौल बना हुआ था। उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनका कोई अपना गुजर गया है।

पड़ोस के मुसलमानों ने सारी व्यवस्था की। यहां तक कि किसी पंडित को रसोई तैयार करने तक में हाथ बंटाने का मौका नहीं दिया और सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।

राजनाथ अपने उन साथी पंडितों के लिए दुखी हैं, जो 1990 के दशक में अपना घर और जमीन जायदाद छोड़ कर पलायन कर गए। उन्हें सरकार के प्रति भी शिकायतें हैं।

उनकी बेटी एक निजी स्कूल में अध्यापिका हैं और उनका वेतन परिवार के गुजारे के लिए बहुत कम है। उनकी चार साल की एक नातिन भी है और दामाद पुलिस के दूरसंचार संभाग में वायरलेस ऑपरेटर हैं।

गमगीन आंखों से पिता ने कहा, “मेरे दामाद अब मेरी बेटी पर घाटी से बाहर नौकरी तलाशने का दबाव दे रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो मैं और मेरी पत्नी अकेले हो जाएंगे।”

राजनाथ ने कहा, “पलायन करने वाले पंडितों को घाटी में वापस आने के लिए सरकार उनको राहत पैकेज और नौकरियों की पेशकश कर रही है, लेकिन हमारे समुदाय के जो लोग यहां निवास कर रहे हैं, उनकी उपेक्षा की जा रही है।”

उनकी बेटी समाज शास्त्र में मास्टर की डिग्री ले चुकी है और वह पांच साल से सरकारी नौकरियों के लिए दर दर भटक रही है।

दुर्भाग्य से कश्मीर में पिछले तीन दशक से हिंसा और नफरत की नकारात्मक कहानी के बीच वहां घाटी में विभिन्न समुदाय के बीच पारंपरिक मैत्री और भाईचारे की पहचान विलुप्त-सी हो गई है।

बांदीपोरा जिले के सुमबल इलाके में एक पुराने मंदिर को पिछले साल स्थानीय मुसलमानों ने साफ-सुथरा कर पंडितों के तीर्थस्थान के रूप में विकसित किया। उत्तर कश्मीर के गांदरबल जिले के तुलामुल्ला गांव में माता खीर भवानी मंदिर में हर साल सालाना महोत्सव के दौरान हजारों पंडित तीर्थयात्री आते हैं। यह महोत्सव वसंत ऋतु के अंत में मनाया जाता है।

पलायन के बावजूद तुलामुल्ला के माता मंदिर में प्रार्थना के लिए हजारों पंडित आते हैं और मिट्टी का बर्तन लेकर मुसलमानों द्वारा यहां तीर्थयात्रियों का स्वागत करने की सदियों पुरानी परंपरा पर घाटी में बह रहे हिंसा के बयार का कोई असर नहीं पड़ा है।

हिमालय के अंचल में कश्मीर की हरमुख चोटी की तलहटी में स्थित गंगाबल झील इलाके के पंडितों के लिए अस्थि विसर्जन का पवित्र स्थान है। कुछ साल तक यहां अस्थि विसर्जन के लिए कोई नहीं आता था, मगर पिछले चार साल से पंडित समुदाय के लोग अपनी परंपरा को दोबारा शुरू करते हुए यहां आने लगे हैं।

स्थानीय मुसलमान अतीत काल से ही यहां पंडित परिवारों के लिए गाइड और बोझा ढोने का काम करते रहे हैं। वे आज भी झील आने वाले पंडित श्रद्धालुओं की सेवा कर अपने इस कर्तव्य का पालन कर रहे हैं।

बैंककर्मी अशोक कौल (56) ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, “मैं बचपन से ही अपने माता-पिता के साथ खीर भवानी मंदिर जाता रहा हूं और मैंने कभी अपने परिवार के प्रति स्थानीय मुसलमानों में सौहार्द्र की भावना और प्यार में कभी कोई अंतर नहीं पाया।”

उन्होंने कहा, “मेरे परिवार के जम्मू जाकर बस जाने के बाद मैं 1990 से मंदिर आ रहा हूं। जब भी मैं यहां आता हूं, स्थानीय मुसलमानों में वही प्यार और उत्साह पाता हूं।”

गुमराह आतंकियों द्वारा किए जा रहे हमले की खबरें अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियां बन जाती हैं, लेकिन वहां मुसलमानों और पंडितों के बीच भाईचारे और सद्भाव की कश्मीर की असली तस्वीर बहुत कम दिखती है।

सनसनी की तलाश में रहने वाले आज के मीडिया के लिए अच्छी खबरें खबर नहीं होती हैं।

(यह साप्ताहिक फीचर श्रंखला आईएएनएस और फ्रैंक इस्लाम फाउंडेशन की सकारात्मक पत्रकारिता परियोजना का हिस्सा है।)

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