भारत की एक अदालत ने एचआईवी पीड़ित एक बस ड्राइवर को नौकरी पर वापस बहाल करने का आदेश दिया है. एचआईवी संक्रमित होने की जानकारी मिलने का बाद उसे परेशान कर नौकरी से हटा दिया गया था.
43 साल के इस शख्स की पहचान जाहिर नहीं की गई है. महाराष्ट्र के पुणे शहर में सरकारी बस सेवा के लिए काम करने वाले शख्स के एचआईवी पीड़ित होने का पता 2008 में चला. पीड़ित शख्स के वकील असीम सारोदे ने बताया कि बीमारी के बाद उसे डॉक्टरों ने थोड़ा हल्का काम करने की सलाह दी. मरीज ने महाराष्ट्र सड़क परिवहन निगम यानी एमएसआरटीसी को अपनी स्थिति के बारे में जानकारी दे कर कंपनी में दूसरी जगह काम पर रखने को कहा. सारोदे ने बताया, “उन्होंने कहा कि यह संभव नहीं है, उसे बतौर ड्राइवर काम पर रखा गया था और उसकी नौकरी बदली नहीं जा सकती. उसके बाद से उन्होंने उसे परेशान करना शुरू कर दिया.”
वकील सारोदे के मुताबिक उसे बहुत ज्यादा परेशान करने के बाद आखिरकार पिछले साल उसे बर्खास्त कर दिया गया. सारोदे को मीडिया के जरिए इस बारे में पता चला और उन्होंने उसे कानूनी सहायता देने का प्रस्ताव दिया. सारोदे ने बताया कि राज्य के परिवहन मंत्री ने टीवी पर उसे “हल्के काम” में रखने का वचन दिया लेकिन उसे 13 दिन के बाद ही दोबारा हटा दिया गया. इसके बाद पीड़ित शख्स ने बॉम्बे हाई कोर्ट का दर्वाजा खटखटाया और दलील दी कि काम करने की योग्यता उसके एचआईवी से प्रभावित होने की तुलना में ज्यादा महत्व रखती है. उसे काम न करने देना मानवाधिकार के खिलाफ है.
बॉम्बे हाईकोर्ट ने उसे सात दिन के भीतर काम पर रखने का आदेश दिया है और साथ ही उसके लिए मुआवजा तय करने पर अलग से सुनवाई करने को कहा है. कोर्ट का फैसला आने के बाद वकील सारोदे ने कहा, “मेरे ख्याल से यह एक अहम फैसला है. इससे सभी संस्थाओं, कंपनियों और काम करने की जगहों तक यह संदेश जाएगा कि वो किसी के एचआईवी पीड़ित होने भर से उसे नौकरी से नहीं निकाल सकते.”
पीड़ित शख्स ने पत्रकारों से कहा कि उनकी पत्नी और दो बच्चों ने नौकरी छिनने के बाद जिंदा रहने के लिए बहुत संघर्ष किया है. अब नौकरी वापस मिलने के बाद उनकी यही इच्छा है कि बुनियादी अधिकार पाने के लिए जिस तरह की परेशानी से उन्हें गुजरना पड़ा है वैसा किसी और के साथ ना हो. एमएसआरटीसी के एक अधिकारी से जब इस बारे में पूछा गया तो उसने कोर्ट का आदेश न मिलने की बात कहकर कोई भी प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया.
एक अनुमान है कि भारत में 20 लाख से ज्यादा एचआईवी प्रभावित लोग हैं. जानकारी की कमी और बीमारी को लेकर दुर्भावनाओं के कारण उनका जीवन बहुत तकलीफ में गुजरता है. आम तौर पर मरीज तो मरीज पूरे परिवार को इसकी सजा भोगनी पड़ती है. बीमारी का पता चलने के तुरंत बाद ही मरीज और उसके परिवार का लोग सामाजिक तौर पर बहिष्कार कर देते हैं. ऐसे में पीड़ित शख्स की दशा और ज्यादा बुरी हो जाती है.
एड्स पीड़ितों की सहायता और इलाज के लिए बनाए गए केंद्र एक तो पर्याप्त नहीं है. दूसरा, वहां के हालात इतने बुरे हैं कि पढ़े लिखे लोग भी इनके पास आने से डरते हैं. एड्स पीड़ितों के लिए बनाए गए केंद्रों में काम करने वाले लोग नहीं मिलते. जागरुकता बढ़ाने के कार्यक्रमों का नतीजा यह तो हुआ है कि इसकी चपेट में आने वाले लोगों की तादाद पिछले एक दशक में कम हुई है लेकिन मरीजों के साथ कैसे व्यवहार करना है, यह लोग नहीं सीख रहे. आम तौर पर एड्स की बीमारी को मरीज के चरित्र से जोड़ कर देखा जाता है क्योंकि यह अकसर यौन संबंध से फैलता है. ऐसे में मरीज के साथ सहानुभूति रखना भी आम जनता के लिए मुश्किल हो जाता है.