नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस/आईपीएन)। दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी को आज जो दुर्दिन देखने को मिल रहे हैं, उनके लक्षण स्पष्टत: पार्टी के जन्म से ही परिलक्षित होने लगे थे। हालांकि वे दृष्टव्य होने के बावजूद अनदेखी किए जाने के फलस्वरूप नासूर बन गए।
नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस/आईपीएन)। दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी को आज जो दुर्दिन देखने को मिल रहे हैं, उनके लक्षण स्पष्टत: पार्टी के जन्म से ही परिलक्षित होने लगे थे। हालांकि वे दृष्टव्य होने के बावजूद अनदेखी किए जाने के फलस्वरूप नासूर बन गए।
रामनवमी पर 28 मार्च को राष्ट्रीय परिषद-आप की बैठक में वह कथित नासूर विस्फोटक रूप ले सकता है, जरूरी है कि सियासी पारी में कथित राष्ट्रीय परिषद सहित सभी इकाईयों को भंग कर एकल प्रणाली के तहत पार्टी प्रमुख एवं सीएम केजरीवाल को सर्वेसर्वा हो जाना चाहिए। इसके बाद अपनी मनचाही राष्ट्रीय परिषद, अन्य कमेटियां गठित करनी होंगी। यहां तक कि राज्य व जिला संयोजकों के साथ उन इकाईयों का पुनर्गठन करना होगा। सवाल उठता है कि आखिर ये सब तमाशा क्यों खड़ा हुआ?
दरअसल, दुर्दिन का मूल कारण है आंदोलन बनाम राजनीति। दोनों उत्तर-दक्षिण ध्रुव हैं, जिन्हें एक करने का दुस्साहस ऐसे ही रासायनिक विस्फोटक का विज्ञान-सूत्र सिद्ध करता है। जब आंदोलन को सियासी जामा पहनाया गया तो जो अनासक्त भाव से व्यवस्था परिवर्तन की नीयत से आंदोलनरत सत्यनिष्ठ जनों की जमात थी, उसे ही राष्ट्रीय परिषद आदि में समायोजित कर लिया गया।
नतीजतन, कथित रूप से व्यवस्था परिवर्तन की सियासी पारी में जिस मंतव्य से उस सत्यनिष्ठ जमात ने अपनी स्वीकृति दी थी, वही अब प्रदूषित होती सियासी पारी में घुटन महसूस कर रहे हैं, और क्रमश: विद्रोही साबित होते जा रहे हैं। इनमें अश्विनी उपाध्याय, पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, मयंक गांधी, शाजिया इल्मी, विनोद कुमार बिन्नी, प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के नाम उल्लेखनीय हैं।
इस स्वच्छ मानसिकता के लगभग 200 लोग आपकी राष्ट्रीय परिषद में हैं, जिनसे ही सियासी जमात को खतरा है। यही कारण है योगेंद्र-प्रशांत द्वारा राष्ट्रीय परिषद के सदस्यों के नाम सार्वजनिक करने की मांग उठाते ही इस जोड़ी को अस्तित्वहीन करार दे दिया गया।
अंततोगत्वा विस्फोटक हालात में पहुंच चुकी ‘आप’ में अब एक ही विकल्प है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) नामधारी आंदोलनसेवी सत्यनिष्ठों को मातृ-संस्थावत मानकर सियासत से अलग किया जाए।
जो काम शुरू में नहीं हुआ, वह अब हो सकता है। दरअसल, आंदोलन के राजनीतिकरण का अंकुरण ठीक चार साल पहले हो चुका था, जब लखनऊ, वाराणसी, कानपुर, रामपुर, मैनपुरी व इटावा आदि जगहों पर तेजी से घटनाक्रम का दौर चला आईएसी के प्रारंभिक संस्थापक सदस्यों को हाशिये पर लाते हुए अनैतिक घुसपैठ को बढ़ावा दिया गया, जब उन्हीं आंदोलन सेवी सत्यनिष्ठ जनों को सियासी पारी के संस्थापक सदस्य के रूप में समायोजित किया गया, मगर नैतिक मूल्यों का ह्रास देखकर वे घुटन महसूस करने लगे और उन्हें ‘विद्रोही’ की उपाधि देने का क्रम शुरू हो गया था, जो थमने का नाम नहीं ले रहा है।
(लेखक देवेश शास्त्री आईएसी के प्रारंभिक समन्वयकों में शामिल हंै)