ऐसा लगता है कि मंगलवार को जब लोकसभा ने भारत के 29 वें राज्य के रूप में तेलंगाना का गठन करने का कानून पारित कर दिया है तो अब इस प्रक्रिया को कोई भी रोक नहीं सकता है।
लेकिन यह ख़तरा है कि तेलंगाना राज्य का गठन सारे भारत में एक नई प्रक्रिया को जन्म दे सकता है, जो भारत के उस संघीय रूप को यदि तोड़ेगी नहीं तो कमज़ोर तो कर ही सकती है, जिसे बनाने में दशकों का समय लग गया था।
यहाँ यह याद करना उचित होगा कि आन्ध्र प्रदेश राज्य का गठन सागर के तट पर बसे सीमान्ध्र और हैदराबाद राज्य को मिलाकर किया गया था, जो तेलंगाना से जुड़ा हुआ था, लेकिन सीधे समुद्र तक जिसकी पहुँच नहीं थी।
पिछली सदी के छठे दशक में भारत के पुनर्गठन के दौर में राज्यों का गठन करते हुए मुख्य तौर पर भाषा को ही आधार बनाया गया था। हर राज्य की सीमा में वे ही इलाके शामिल किए जाते थे, जहाँ भारत की बड़ी भाषाओं में से कोई एक भाषा अच्छी तरह से समझी और बोली जाती थी। आन्ध्र प्रदेश राज्य में वे इलाके शामिल किए गए थे, जहाँ तेलुगु बोली जाती थी। रेडियो रूस के विशेषज्ञ और रूस के सामरिक अध्ययन संस्थान के एक विद्वान बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
इसके बाद गुज़रे दशकों में भारत को संघीय रूप देने के विचार और भाषा के आधार पर राज्यों के बँटवारे के सिद्धान्त को कई बार परीक्षणों के दौर से गुज़रना पड़ा। कुछ अन्य भाषा-भाषी लोग, जिन्हें छठे दशक में अलग राज्य देने के लायक नहीं समझा गया था, बाद में अपने अलग राज्य की माँग करने लगे। केन्द्र और राज्यों के बीच अधिकारों के बँटवारे को लेकर भी लगातार बहस-मुबाहिसे होते रहे। इनका फल यह हुआ कि कुछ बड़े राज्यों को बाँटकर छोटे राज्य बनाने की प्रक्रिया भारत में लगातार चलती रही। लेकिन भारत में संघीय व्यवस्था कामयाब हो गई थी और ’विभिन्नता में एकता’ का सिद्धान्त ठीक-ठीक काम कर रहा था।
परन्तु पिछले कुछ वर्षों से भारत में केन्द्र से दूर भागने की प्रवृत्ति दिखाई देने लगी है। राज्य ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर से व्यापक सवालों पर अपने आत्मनिर्भर होने की घोषणा करने लगे हैं और क्षेत्रीय दल केन्द्र की राजनीति में प्रभावशाली होते जा रहे हैं। पिछली सदी के आख़िरी दशक में भारत में एक भी सरकार ऐसी नहीं रही, जिसमें प्रमुख दलों को अन्य दलों से गठबन्धन न करना पड़ा हो। चुनावों में जीतने वाली काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय दलों से गठबन्धन बनाने पड़े। और क्षेत्रीय दलों ने इन दलों को अपना समर्थन देने के लिए अपने राज्यों के लिए कई तरह की रियायतें, सुविधाएँ और विशेषाधिकार माँगे। बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
लेकिन तेलंगाना की स्थिति कुछ अलग तरह की है। बात यह है कि आन्ध्र-प्रदेश से तेलंगाना को अलग करने का आन्दोलन, जब आन्ध्र प्रदेश राज्य की स्थापना की गई थी, तभी से यानी 1956 से ही चल रहा है। और इसका आधार भाषा न होकर आर्थिक है। तेलंगाना और सीमान्ध्र दोनों ही जगह तेलुगु बोली जाती है। दोनों ही जगह मुख्य तौर पर अधिकांश जनता हिन्दू धर्म की अनुयायी है। लेकिन आन्ध्र प्रदेश राज्य के भीतरी इलाकों की जनता यानी तेलंगाना की जनता ख़ुद को आर्थिक रूप से सीमान्ध्र की जनता से कटा-कटा महसूस करती थी, जिसको वे सारी रियायतें और सुविधाएँ नहीं मिलती थीं, जो आर्थिक सुविधाएँ सीमान्ध्र की जनता को मिलती थीं।
परिस्थिति का विरोधाभास यह है कि जब आन्ध्र प्रदेश का विभाजन हो जाएगा तो यह परिस्थिति पूरी तरह से उलट जाएगी। आन्ध्र प्रदेश की वर्तमान राजधानी हैदराबाद ज़िला और खनिज पदार्थों की सारी खानें तेलंगाना को मिल जाएगा, जो आन्ध्रप्रदेश की वर्तमान आय का साधन हैं। तेलंगाना के पास ही नदियों के ऊपरी हिस्से भी रह जाएँगे। इससे सीमान्ध्र के किसान और जनता पानी के लिए तेलंगाना की कृपा पर निर्भर हो जाएँगे।
इस तरह तेलंगाना की समस्या शुरू से ही संकट का कारण बनती दिखाई दे रही थी। नए तेलंगाना राज्य के समर्थक जितनी ज़्यादा ज़ोर से नए राज्य के लिए आवाज़ उठाते थे, नए राज्य के विरोधी उससे भी ज़्यादा ज़ोर से नए राज्य के विरोध में आवाज़ उठाते थे।
भारत की सरकार ने सन् 2009 में ही यह घोषणा कर दी थी कि आन्ध्र प्रदेश को बाँट कर नया राज्य बनाया जाएगा। लेकिन जब सन् 2013 में सत्तारूढ़ सँयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन ने आन्ध्र प्रदेश के विभाजन को कानूनी जामा पहनाने की कार्रवाई शुरू की तो उसे भारी विरोध का सामना करना पड़ा।
इस सप्ताह हालत तब और ज़्यादा तनावपूर्ण हो गई, जब संसद में आन्ध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक विचार के लिए रखा गया। संसद सदस्यों ने एक-दूसरे पर मिरची गैस छोड़नी शुरू कर दी। बुधवार को आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री किरण कुमार रेड्डी ने लोकसभा में आन्ध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक पारित होने के विरोध में अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया। यही नहीं उन्होंने सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी भी छोड़ने की घोषणा की। बरीस वलख़ोन्स्की ने आगे कहा :
यह विधेयक अभी राज्यसभा में भी विचार के लिए रखा जाएगा। लेकिन इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं है कि राज्यसभा में भी यह विधेयक पारित हो जाएगा। केन्द्र सरकार इस विधेयक को पारित करवाने में जो जल्दबाज़ी दिखा रही है, वह समझ में आने वाली है। आम चुनाव निकट आ रहे हैं और पिछले कुछ महीनों से देश में काँग्रेस की लोकप्रियता गिरती जा रही है तेलंगाना राज्य का गठन करके काँग्रेस कम से कम एक राज्य में तो अपनी स्थिति मज़बूत कर लेगी।
लेकिन इस तात्कालिक लाभ के लम्बे समय में भारी दुष्परिणाम हो सकते हैं। पिछले साल गर्मियों में ही आन्ध्र प्रदेश का विभाजन करने के निर्णय की बात सुनकर भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी गोरखालैण्ड और बोडोलैण्ड नामक राज्यों का गठन करने की माँग उठने लगी थी। अब इस बार ऊँट किस करवट बैठेगा, यह कहना मुश्किल है।