चढ़ चेतक पर तलवार उठा रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट करता था सफल जवानी को।
कलकल बहती थी रण–गंगा अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी चटपट उस पार लगाने को
वैरी–दल को ललकार गिरी¸ वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸ तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।
पैदल से हय–दल गज–दल में छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸ देखो चमचम वह निकल गई।
क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸ क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸ क्षण शोर हो गया किधर गई।
क्या अजब विषैली नागिन थी¸ जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸ फैला शरीर में जहर नहीं
थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸ वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸ बिजली थी कहीं कटार कहीं।
लहराती थी सिर काट–काट¸ बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट तनती थी लोहू चाट–चाट
सेना–नायक राणा के भी रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे दूने–तिगुने उत्साह भरे।
क्षण मार दिया कर कोड़े से रण किया उतर कर घोड़े से
राणा रण–कौशल दिखा दिया चढ़ गया उतर कर घोड़े से।
क्षण भीषण हलचल मचा–मचा राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸ मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा।
जो साहस कर बढ़ता उसको केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸ बरछे पर उसको रोक दिया।
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸ क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।
क्षण भर में गिरते रूण्डों से मदमस्त गजों के झुण्डों से¸ घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸ पट गई भूमि नर–मुण्डों से।
ऐसा रण राणा करता था पर उसको था संतोष नहीं क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह पर कम होता था रोष नहीं।
कहता था लड़ता मान कहां मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां। जिस पर तय विजय हमारी है वह मुगलों का अभिमान कहां।
भाला कहता था मान कहां¸ घोड़ा कहता था मान कहां? राणा की लोहित आंखों से रव निकल रहा था मान कहां।
लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸ वह कुल–कलंक है मान कहां? राणा कहता था बार–बार मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।
तब तक प्रताप ने देख लिया, लड़ रहा मान था हाथी पर। अकबर का चंचल साभिमान उड़ता निशान था हाथी पर।। वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸ अपने दल को था बढ़ा रहा। वह भीषण समर–भवानी को पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।। फिर रक्त देह का उबल उठा जल उठा क्रोध की ज्वाला से। घोड़े से कहा बढ़ो आगे¸ बढ़ चलो कहा निज भाला से।
हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸ राणा का घोड़ा लहर उठा। शत–शत बिजली की आग लिए, वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।
क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸ ज्वर सन्निपात लकवा था वह। था शोर बचो घोड़ा–रण से कहता हय कौन¸ हवा था वह
तनकर भाला भी बोल उठा, राणा मुझको विश्राम न दे। बैरी का मुझसे हृदय गोभ, तू मुझे तनिक आराम न दे।। खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸ बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸ अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे शोणित सागर लहरा दूं मैं।
रंचक राणा ने देर न की¸ घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट राणा चढ़ आया हाथी पर।
गिरि की चोटी पर चढ़कर किरणों निहारती लाशें¸ जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸ कुछ की चलती थी सांसें।
वे देख–देख कर उनको मुरझाती जाती पल–पल। होता था स्वर्णिम नभ पर पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।
मुख छिपा लिया सूरज ने जब रोक न सका रूलाई। सावन की अन्धी रजनी वारिद–मिस रोती आई।।