Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/load.php on line 926

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826
 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं | dharmpath.com

Sunday , 24 November 2024

Home » ब्लॉग से » अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं

January 11, 2015 4:38 am by: Category: ब्लॉग से Comments Off on अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं A+ / A-

imagesपेरिस की कार्टून पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के माने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है? कार्टून और व्यंग्य को लेकर खासतौर से यह सवाल है। भारत में हाल के वर्षों में असीम त्रिवेदी के मामले में और फिर उसके बाद आम्बेडकर के कार्टून को लेकर यह सवाल उठा था। कुछ लोगों की मान्यता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती। उसकी सीमा होनी चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या यह सीमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही लागू होती है? क्या धार्मिक या आस्था की स्वतंत्रता की सीमा भी नहीं होनी चाहिए? हाल में सिडनी के एक कैफे और पाकिस्तान के पेशावर में बच्चों की हत्या से जुड़े सवाल भी हमें इसी दिशा में लाते हैं? सवाल है कितनी आजादी? और किसकी आज़ादी?

इक्कीसवीं सदी के आने वाले वर्षों में यह सवाल और शिद्दत से उठने वाला है कि धार्मिक स्वतंत्रता के बरक्स क्या धर्मों के विरोधी विचारों को भी अपनी राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए? पेरिस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो केवल इस्लाम पर ही व्यंग्य नहीं करती थी। उसके निशाने पर दूसरे धर्म भी थे। उसका अंदाज़ बेहद तीखा था, पर सवाल यह है कि क्या धर्मों को व्यंग्य का विषय नहीं बनाया जा सकता? फ्रांस के पास राजनीतिक चिंतन का एक इतिहास है। दुनिया को समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की अवधारणा फ्रांसीसी राज्य-क्रांति से निकली है। धार्मिक विचार की स्वतंत्रता, अपने विचार के प्रचार की स्वतंत्रता के साथ दूसरे के विचार के विरोध की स्वतंत्रता भी इसमें शामिल है। इसकी मर्यादा कहाँ और किस तरह निर्धारित होगी इसपर विचार किया जाना चाहिए। कार्टून का जवाब कार्टून है, पर चूंकि हम कार्टून नहीं बना सकते इसलिए जवाब उस औजार से देंगे जिसका इस्तेमाल करना हम जानते हैं। पर उससे बड़ा सवाल यह है कि दूसरे को हम आलोचना का अधिकार देंगे या नहीं?

रचनाकारों, लेखकों, कलाकारों वगैरह को अपने विचार की स्वतंत्रता देने वाला समाज अपेक्षाकृत उदार होता है। यह उदारता इस सदी में बढ़ने के बजाय कम क्यों हो रही है? सन 2004 में फिल्म निर्देशक थियो वैनगॉफ की हत्या की गई। उन्होंने सोमालिया में जन्मी लेखिका अयान हिर्सी अली के साथ मिलकर फिल्म ‘सब्मिशन’ बनाई थी। वे इस्लामी दुनिया में स्त्रियों के प्रति किए जा रहे व्यवहार को लेकर आवाज़ उठा रहे थे। उनपर भी यही आरोप था कि वे मुसलमानों को उकसा रहे थे। अयान हिर्सी आज भी धार्मिक सुधार को लेकर आवाज उठा रही हैं। यह आवाज इस्लामी दुनिया के भीतर भी है। पर सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है। जो केवल पेन का इस्तेमाल करता है या ब्रश से अपनी बात कहता है उसका जवाब क्या बंदूक से दिया जाना चाहिए? यह सवाल हमारे देश में लगातार उठता रहा है। हमारे यहाँ अकसर किताबों और रचनात्मक कृतियों का विरोध होता रहा है। सलमान रुश्दी की ‘सैटनिक वर्सेज’ पर रोक लगी, तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल ने जगह नहीं दी। मकबूल फिदा हुसेन को भारत छोड़कर बाहर जाना पड़ा। हाल में हम फिल्म ‘पीके’ को लेकर बवाल देख रहे हैं। ये एक उदार समाज के लक्षण नहीं हैं। पश्चिमी समाज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्व देता है। इस विचार का विकास उसी समाज में हुआ है।

यह बात केवल इस्लामी कट्टरता से नहीं जुड़ी है। सन 2011 में नॉर्वे के 32 वर्षीय नौजवान का एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक ने एक सैरगाह में यूथ कैम्प पर गोलियाँ चलाकर तकरीबन 80 लोगों की जान ले ली थी। नॉर्वे जैसे शांत देश में वह हिंसा क्यों हुई थी? क्या ईसाई आतंकवादी भी दुनिया में हैं? क्या नव-नाज़ी कोई बड़ी कार्रवाई करना चाहते हैं? क्या आतंकवादियों का संसार अलग है? क्या कट्टरपंथी हिन्दुत्व भी इतना ही हिंसक है? क्या यह मध्य युग की वापसी है जब धार्मिक विचारों को लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड हो रहे थे?

‘शार्ली एब्दो’ पर हमला बोलने वाले केवल हत्या करने में ही सफल नहीं हुए। वे सामाजिक जीवन की समरसता तोड़ने में और ध्रुवीकरण बढ़ाने में भी कामयाब हुए हैं। एक तरफ वे इस बात को स्थापित कर गए हैं कि कुछ धार्मिक मसलों पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। इससे वे एक धर्म के लोगों की भावनाओं को भड़का गए हैं। दूसरी ओर वे एक बड़े वर्ग को अपने से अलग साबित करने में कामयाब हुए हैं। यह सच है कि दो चार लोगों की वजह से पूरे समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, पर यह भी सच है कि जब बुनियादी बातों पर चोट लगती है तब पूरा समुदाय कुंठित महसूस करता है। ऐसा नहीं कि समूचा ईसाई समुदाय एक जैसा है या सारे हिन्दू एक हैं और सारे मुसलमान एक जैसा सोचते हैं। इनके भीतर कई प्रकार की धारणाएं हैं, पर इनके अंतर्विरोधों को जब भड़काया जाता है तब क्रिया और प्रतिक्रिया होने लगती है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए के तहत धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना बड़ा अपराध है। इसी तरह धारा 153 ए के तहत साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ना अपराध है। संविधान के अनुच्छेद 25(1) के अनुसार ‘लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों का अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।’ हाल में ‘घर वापसी’ की बहस के पीछे इस अधिकार भी काफी बातचीत हुई है। हमने धार्मिक प्रचार और विचार की स्वतंत्रता को तो महत्वपूर्ण माना है, पर धर्म के विरोध की स्वतंत्रता को नहीं। विचार तो वह भी है।

कुछ लोग साबित करते है कि नैतिकता के पीछे धार्मिक धारणाएं हैं, पर कुछ लोग यह भी कहते हैं कि धर्मों की धारणाएं अनैतिकता को जन्म देती हैं। उन्हें भी अपनी बात कहने का मौका दिया जाए। ‘शार्ली एब्दो’ के हत्यारों ने केवल 12 लोगों की हत्या ही नहीं की काफी बड़ी संख्या में लोगों को एक तरह से चेतावनी दी कि हम हर तरह की अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं देंगे। हालांकि वे अपनी रणनीति में विफल होंगे क्योंकि 60,000 बिकने वाली पत्रिका का अगला अंक दस लाख का निकलने वाला है। और अब दुनिया के सामने यह मसला पहले से कहीं ज्यादा शिद्दत के साथ उठेगा।

प्रमोद जोशी के ब्लॉग से

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं Reviewed by on . पेरिस की कार्टून पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क पेरिस की कार्टून पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क Rating: 0
scroll to top