जगत कैसा है? पहले देखो, आपके मन का भाव कैसा है? जैसा आपका भाव होता है, जगत वैसा ही भासित होता है। सुर (देवत्व का) भाव होता है तो आप सज्जनता का, सद्गुण का नजरिया ले लेते हैं और आसुरी भाव होता है तो आप दोषारोपण का नजरिया ले लेते हैं। जिस एंगल से फोटो लो वैसा दिखता है। जगत में न सुख है न दुःख है, न अपना है न पराया है। आप राग से लेते हैं, द्वेष से लेते हैं कि तटस्थता से लेते हैं। आप जैसा लेते हैं ऐसा ही जगत दिखने लगता है।
कोई भी जगत का व्यवहार किया जाता है तो उसे सच्चा समझकर चित्त को उससे विह्वल न करो, नहीं तो आसुरी वृत्ति हो जायेगी, शोक हो जायेगा, दुःख हो जायेगा। अच्छा होता है तो उसका अहंकार न करो। हो-होके बदलनेवाला जगत है, यह द्वैतमात्र है- या तो सुख या तो दुःख। इन दोनों के बीच का तीसरा नेत्र खोलो ज्ञान का। आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा है ज्ञानमयी दृष्टि करना- सुख में भी न उलझना, दुःख में भी न उलझना।
न खुशी अच्छी है, न मलाल अच्छा है।
यार तू अपने-आपको दिखा दे, बस वो हाल अच्छा है॥
प्रभु! तू अपनी चेतनता, अपनी सत्यता, अपनी मधुरता दे।
दायां-बायां पैर पगडण्डी पर, सीढ़ियों पर रखते-रखते देव के मंदिर में पहुंचते हैं, ऐसे ही सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु इनको पैरों तले कुचलते-कुचलते जीवनदाता के स्वरूप का ज्ञान पाना चाहिए, उसी में विश्रांति पानी चाहिए, उसी में प्रीति होनी चाहिए।
हम अच्छे बुरे या हां ना में उत्तर देते हैं। यह सब ज्ञान के कारण होता है। यह है इन्द्रियों का ज्ञान। इन्द्रियों की गहराई में मन का ज्ञान। मन की गहराई में बुद्धि का ज्ञान। लेकिन इन्द्रियां, मन और बुद्धि में ज्ञान कहां से आता है? ‘मैं’ से। ‘मैं’ माना वही चैतन्य, जहां से ‘मैं’ स्फुरित होता है। सबको ‘मैं’ चाहिए। जहां से ‘मैं’ उठता है उस चैतन्य का सुख चाहिए। है न! कोई बोलता है: ‘‘मैं हूँ, तुम नहीं हो।’’ तो क्या आप मानोगे?
आप बोलोगे: ‘‘मैं भी हूँ। मैं कैसे नहीं हूं? मैं हूं तभी तुम हो। मैं हूं तभी तुम दिखते हो।’’ ‘मैं’ ही मेरे में तृप्त है। ‘मैं, मैं, मैं, मैं…’ ये आकृतियाँ अनेक हैं, अंतःकरण अनेक हैं लेकिन ‘मैं’ की सत्ता एक है। उसी ‘मैं’ में आराम पाओ। गहरी नींद में आप अपने ‘मैं’ में ही तो जाते हो, और क्या है?
उस मूल ज्ञान को ‘मैं’ के रूप में जान लिया तो आपका तो काम हो गया, देवत्व प्रकट हो गया लेकिन आपकी वाणी सुननेवाले को भी महापुण्य होगा।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध॥
सुख देवें दुःख को हरें, करें पाप का अंत।
कह कबीर वे कब मिलें, परम सनेही संत॥