माई ऐसा पूत जण, कै दाता कै सूर।
नांहि त रह तू बॉझड़ी, मती गवांवें नूर।।
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघपति भगतु जासु सुतु होई।।
श्री हनुमान अंजना नामक माता के आनंद को बढ़ाने वाले हैं। यह आनंद केवल दो बातों से होता है-पुत्र की वीरता से या पुत्र की रामभक्ति से। यह दोनों बातें श्री हनुमान के जीवन में पद-पद पर दृष्टिगोचर होती है। श्री हनुमान एकादश रूद्रों के मध्य ग्याहरवें रूद्र हैं। वे परम कल्याण स्वरूप साक्षात शिव है।
पुराणों में हनुमान जी के रूद्रावतारात्मक प्रसंग तथा वर्णन प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। सभी पुराणों में राम कथा के बारे में चरित्र चित्रण मिलता है।
श्री हनुमान की जन्म कथा दिव्य एवं रहस्यमयी है। हनुमान ने भगवान श्रीराम के आदर्श राम राज्य स्थापना में जो सहयोग दिया,वह विभिन्न रामायणों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। उन्होंने अपना तम-मन सर्वस्व श्रीराम के चरणों में समर्पित कर दिया। पवन सुत के संपूर्ण गुणों का वर्णन करना तो असंभव है तथापि उनकी स्वामिभक्ति, अपूर्व त्याग, ज्ञान की पूर्णत, निरभिमानिता एवं अद्भुत चातुर्य गुण जो मानव जाति के लिए अनुकरणीय हैं, उनका उल्लेख करना इनके प्रति सच्ची भक्ति है।
स्वामिभक्ति श्री हनुमान जी सातवीं दास्य भक्ति के आचार्य माने जाते हैं। स्वामी की आज्ञा पालन ही सेवक का धर्म है। लंका प्रवेश, लक्ष्मण मूर्छा, रावण वध और उसके बाद अयोध्या लीला में भी हमें पवनसुत की भक्ति का दर्शन होता है। यही कारण है कि हम आज भी हमें गांव-गांव में छोटे-छोटे रूप में प्रतिष्ठित श्री हनुमान के दर्शन होते हैं।
निरभिमाननित्व अभिमानं सुरापानम् कह कर शास्त्रों ने अभिमान को सुरापान के समान त्याच्य माना गया है। हनुमान जी में लेशमात्र भी अभिमान नहीं था। निरभिमानित्व भक्ति के मार्ग में भूषण स्वरूप है। इसी इनके गुण के देखकर स्वयं श्री राम ने कहा कपिवर तुम्हारे किए उपकारों के बदले मैं अपना प्राण अर्पण कर दूं तो भी अन्य उपकारों का ऋण मेरे जिम्मे रह जाता है। अत: हनुमान जी ने तुरंत उत्तर दिया- सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरी प्रभुताई। यही तो इनके जीवन की कृतार्थता है कि श्रीराम उनके ऋणी हैं।
अदभुत चातुर्य जिस भक्त के ऊपर भगवान की कृपा होती है, उसे वे अपने सदगुणों का दान देते हैं। सीता को राम ने वह प्रसंग सुनाया जिससे कपिवर ने ब्राह्मण से संपुटित मंत्र द्वारा चंडी महायज्ञ में जिस मंत्र द्वारा हवन किया जाना रहा था। उसके एक अक्षर का परिवर्तन का वरदान मांग लिया। ब्राह्मणों ने तथास्तु कह दिया। यह यज्ञ रावण की विजय के लिए था। उस श्लोक में भूतार्तिहारिणी में हुं के उच्चारण का वर मांगा।