स्वामी चिन्मयानंद हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्वांत वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने सारे देश में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्व धर्म की स्थापना करने के लिए उन्होंने गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की।
स्वामी जी के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए हजारों लोग आने लगे। उन्होंने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये। हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य प्रारम्भ किये, जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि। स्वामी जी ने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। गीता पर लिखा उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है।
सन् 1948 में वे ऋषिकेश पहुंचे। वे देखना चाहते थे कि भारत के सन्त महात्मा कितने उपयोगी अनुपयोगी है। यद्यपि वे उस समय किसी धार्मिक कृत्य में विश्वास नही रखते थे। इसी समय वे स्वामी शिवानन्द जी से प्रभावित हुए और उनसे संन्यास की दीक्षा ले ली। तब से उनका नाम स्वामी चिन्मयानन्द हो गया। वे अपने गुरु से मार्ग-दर्शन पुस्तकालय की एक- एक पुस्तक लेकर अध्ययन करते थे। स्वामी जी उस समय दिन भर पढ़े हुए विषयों का चिन्तन करते थे। कुछ दिनों में उनका अध्ययन गहन होने पर वे बड़े गम्भीर चिन्तन में व्यस्त रहते थे।
उनकी यह स्थिति देखकर स्वामी शिवानन्द जी ने उन्हें स्वामी तपोवन जी के पास उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए भेज दिया। उन दिनों स्वामी तपोवन महाराज उत्तरकाशी में वाश करते थे। उनके पास रहकर लगभग 8 वर्ष उन्होंने वेदान्त अध्ययन किया।
स्वामी चिन्मयानन्द जी ने अपना भौतिक शरीर 3 अगस्त, 1993 ई. को अमेरिका के सेन डियागो नगर में त्याग दिया।