हमारे जीवन निर्माण की सही शुरुआत कहां से करें? एक उभरता सवाल है आज के परिवेश में, इसके लिए धर्म-ग्रंथ जीवन मंत्रों से भरे पड़े हैं। प्रत्येक मंत्र दिशा दर्शक है।
उसे पढ़कर ऐसा अनुभव होता है, मानो जीवन का राज मार्ग प्रशस्त हो गया। उस मार्ग पर चलना कठिन होता है, पर जो चलते हैं वे बड़े मधुर फल पाते हैं।
कठोपनिषद् का एक मंत्र है
‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’
– यानी उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ, जो तुम्हारा परिचय परब्रह्म परमात्मा से करा सकें।
इस अर्थ में तीन बातें निहित हैं। पहली, तुम जो निद्रा में बेसुध पड़े हो, उसका त्याग करो और उठकर बैठ जाओ। दूसरी, आंखें खोल दो अर्थात् अपने विवेक को जाग्रत करो। तीसरी, चलो और उन उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ, जो ईश्वर यानी जीवन के चरम लक्ष्य का बोध करा सकें।
जीवन विकास के राजपथ पर स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय काम नहीं करता। यहां तो सत्य की तलाश में आस्था, निष्ठा, संकल्प और पुरुषार्थ ही जीवन को नई दिशा दे सकते हैं।
‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ यह मंत्र हमारा ध्यान अच्छाइयों की ओर आकृष्ट करता है और उन अच्छाइयों को प्राप्त करने के लिए उद्योग करने को प्रोत्साहित करता है, किंतु इसे जीवन की किसी भी दिशा में प्रयुक्त किया जा सकता है।