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समाज को दिखाया सन्मार्ग

15_05_2013-adishnkraसनातन संस्कृति को पुन‌र्प्रतिष्ठित करने वाले अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि शंकराचार्य को संसार के प्रमुख दार्शनिकों में मान्यता मिली हुई है। उनका अद्वैत दर्शन उनके भाष्यों में दृष्टिगत होता है। आदि शंकराचार्य जयंती के अवसर पर ..

भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान में आदि शंकराचार्य का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि सनातन धर्म के अनुयायी उन्हें भगवान शंकर का अवतार मानते हैं। ‘शिव रहस्य’ ग्रंथ में कलियुग में आदि शंकराचार्य का अवतार होने का उल्लेख मिलता है। भविष्योत्तर पुराण का भी कथन है, कल्यादौ द्विसहश्चांते लोकानुग्रह काम्यया। चतुर्भि: सहशिष्यैस्तु शंकरोवतरिष्यति।। अर्थात कलियुग के दो हजार वर्ष बीत जाने पर लोक का अनुग्रह करने के उद्देश्य से चार शिष्यों के साथ भगवान शंकर आचार्य के रूप में अवतरित होंगे।

आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म को शक्ति प्रदान करने के उद्देश्य से देश की चारों दिशाओं पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में चार पीठों की स्थापना की। पूर्व में श्रीजगन्नाथ पुरी, उड़ीसा में गोव‌र्द्धन पीठ की स्थापना की। आदि शंकराचार्य के शिष्य श्रीपद्मपाद इस पीठ पर सर्वप्रथम आसीन हुए। पश्चिम में द्वारका (गुजरात) में शारदापीठ की स्थापना करके सुरेश्वराचार्य को कार्यभार सौंपा। सुरेश्वराचार्य का नाम पहले पं मंडन मिश्र था, जिन्हें आदि शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। उत्तर में हिमालय पर्वत की गोद में पवित्र बदरिकाश्रम में ज्योतिष-पीठ की स्थापना करके श्रीतोटकाचार्य को वहां का सर्वप्रथम आचार्य नियुक्त किया। दक्षिण में श्रृंगेरी के श्रृंगगिरि पीठ (शारदा पीठ) में विश्वरूपाचार्य को पदारूढ़ किया। इसीलिए इन चारों पीठों के आचार्य ‘शंकाराचार्य’ कहलाए। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज भी जारी है। अस्तु, आदि शंकराचार्य ने देश की चारों दिशाओं में सनातन संस्कृति के सजग प्रहरियों के रूप में चार पीठों के माध्यम से चार धर्म-दुर्र्गो की स्थापना की।

इन चारों पीठों में उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार, आदि शंकराचार्य का जन्म कलिसंवत 2595 में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन 507 ईस्वी पूर्व हुआ था। इस वर्ष सन 2013 में वैशाख शुक्ल पंचमी (15 मई) को आदि शंकराचार्य की 2520 वीं जयंती चारों पीठों सहित संपूर्ण भारत में अत्यंत उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाई जाएगी।

आदि शंकराचार्य ने दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में जन्म लिया। माना जाता है कि उनके नि:संतान माता-पिता ने पुत्र-प्राप्ति की कामना से भगवान शंकर की अति कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव ने उन्हें स्वयं अपने अंश से एक सर्वगुणसंपन्न पुत्र दिया, लेकिन शिवजी ने यह भी कहा कि यह बालक सनातन संस्कृति का पुनरुद्धार करके अल्पकाल में शिवलोक लौट आएगा। माता-पिता ने इष्टदेव शंकर भगवान के नाम पर इनका नाम भी शंकर ही रखा।

बालक शंकर महान विभूति बनेंगे, इसके प्रमाण बचपन से ही मिलने लगे थे। एक वर्ष की अवस्था में वे अपने भाव-विचार प्रकट करने लगे। दो वर्ष की अवस्था में उन्होंने पुराणादि की कथाएं कंठस्थ कर लीं। तीन वर्ष की अवस्था में उनके पिता स्वर्गवासी हो गए। पांचवें वर्ष में यज्ञोपवीत करके उन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेज दिया गया। केवल सात वर्ष की आयु में ही वे वेद, वेदांत और वेदांगों का पूर्ण अध्ययन करके घर वापस लौट आए। उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन भी दंग रह जाते थे।

विद्याध्ययन समाप्त कर शंकर ने संन्यास लेना चाहा, परंतु माता ने इसकी अनुमति नहीं दी। कहा जाता है कि तब एक घटना घटी। एक दिन जब वह माता के साथ नदी में स्नान कर रहे थे, उन्हें मगरमच्छ ने पकड़ लिया। इस प्रकार पुत्र के प्राण संकट में देखकर मां के होश उड़ गए। शंकर ने मां से अनुरोध किया कि यदि आप मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दे देंगी, तो यह मगर मुझे जीवित छोड़ देगा। माता ने तुरंत स्वीकृ ति दे दी और मगर ने उन्हें छोड़ दिया। माता की आज्ञा से वे आठ वर्ष की उम्र में घर से निकल पड़े। जाते समय उन्होंने मां को वचन दिया कि उनकी मृत्यु के समय घर पर ही उपस्थित रहेंगे। इस वचन को उन्होंने निभाया भी।

घर से चलकर शंकर नर्मदातट पर आए और वहां स्वामी गोविंद भगवत्पाद से दीक्षा ली। गुरु ने इनका नाम भगवत पूज्यपादाचार्य रखा। उन्होंने गुरुपादिष्ट मार्ग से साधना शुरू कर दी। अल्पकाल में ही वे बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा बन गए। उनकी सिद्धि से प्रसन्न होकर गुरु ने उन्हें काशी जाकर वेदांतसूत्र का भाष्य लिखने का निर्देश दिया। किंवदंती है कि काशी में बाबा विश्वनाथ ने चांडाल के रूप में उन्हें दर्शन देकर उनकी परीक्षा ली, पर आचार्य शंकर ने उन्हें पहचान कर साष्टांग दंडवत किया। काशी विश्वेश्वर ने उन्हें ब्रšासूत्र का भाष्य लिखने का आदेश दिया। भाष्य लिखने के बाद वेद व्यास जी ने उनकी कठोर परीक्षा शास्त्रार्थ करके ली। मान्यता है कि महर्षि व्यास ने प्रसन्न होकर उनकी आयु 16 से दोगुनी 32 वर्ष कर दी। उन्होंने उन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने का निर्देश दिया।

आचार्य शंकर ने अनेक लोगों को सन्मार्ग में लगाया और कुमार्ग का खंडन करके धर्म का सही मार्ग समाज को दिखाया। आचार्य शंकर ने कई अद्भुत स्तोत्रों एवं भाष्यों की रचना की, जो आज भी आध्यात्मिक जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं।

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