शैलेन्द्र सिंह ( भोपाल )–भारत के बारे में हमारी समझ तब तक अधूरी रहने वाली है जब तक हम इस देश में विकसित वन संस्कृति के बारे में अपना पूरा परिचय नहीं पा लेते। जो लोग भारत की पुरानी काया के बारे में थोड़ी भी जानकारी रखते हैं उन्होंने यहां के वनों के बारे में थोड़ी या बहुत जानकारी जरूर हासिल कर रखी होगी।
मसलन जिन्हें रामायण के बारे में पता है (और इस देश में ऐसा कौन है जिसे रामकथा का पता न हो) वे दण्डकारण्य नामक अरण्य अर्थात वन से परिचित न हों, यह संभव ही नहीं है। महाभारत कथा से परिचित अधिकांश पाठकों को पता होगा कि आज जहां दिल्ली का पुराना किला है, यानी जो इन्द्रप्रस्थ है, वहां कभी खाण्डववन था, जिसे कृष्ण की मदद से जलाकर पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ नाम से एक नया शहर ही बसा दिया था और इसी शहर में वह महल था जहां राजसूर्य यज्ञ देखने आए दुर्योधन का पांव फिसला था, जिसे गिरते देख द्रौपदी हंस पड़ी थी। वनों की इसी शृंखला में नैमिषारण्य का भी नाम आता है जहां सूतजी के नेतृत्व में शौकिन आदि हजारों मुनियों ने एक लम्बा ऐतिहासिक संवाद किया था। जिसे न दण्डकारण्य का पता है, न खाण्डव वन का और न ही नैमिषारण्य का, उस हिन्दुस्तानी को भी पता ही है कि इस देश में कभी तपोवनों का जाल बिछा हुआ था और तपोवन नाम से ही जाहिर है कि तपस्या करने के ये स्थान वनों में हुआ करते थे।
तो क्या होते थे आश्रम और तपोवन? क्या होता था वहां? नाम से ऐसा लगता है कि वन के किसी हिस्से में तपोवन एक ऐसी जगह होती होगी जहां ऋषि मुनि बैठकर हर वक्त तपस्या करते रहते होंगे। सुबह उठते होंगे, नहा धोकर जो समाधि में बैठते होंगे तो बस रात होने पर ही उठते होंगे। ऐसा नहीं है और अगर आप आश्रमों और तपोवनों के बारे में ऐसा मान बैठे हों तो कृपया इस भ्रांति से बाहर आ जाइए।
आप बिना किसी उलझन के इस भ्रांति से बाहर आ जाएं और तपोवनों के बारे में सही राय कायम कर सकें, इसके लिए हम अपको कुछ उदाहरण दिए देते हैं जो लोगों को प्राय: पता है। हस्तिनापुर (तब प्रतिष्ठान) के एक पुरुवंशी सम्राट दुष्यन्त का जिस शकुन्तला नामक ऋषिकन्या से पहले प्रेम हुआ था और फिर विवाह भी हो गया था, वह शकुन्तला, यानी विश्वामित्र व मेनका की सन्तान वह शकुन्तला कण्व ऋषि के आश्रम में रहती थी। राम ने भार्या सीता को उसकी गर्भिणी अवस्था में ही राजमहल से निकाल दिया था तो उस महारानी को वाल्मीकि मुनि के आश्रम यानी तपोवन में ही सहारा मिला था जहां उसे लव-कुश नामक दो पुत्र हुए और उन्हें अस्त्र-शस्त्र की तब की अत्याधुनिक शिक्षा भी वहीं तपोवन में मिली।
जिन याज्ञवल्क्य को राजा जनक की ब्रह्मसभा में सोना मढ़ी सींगों वाली हजार गउएं मिली थीं, वे महान याज्ञवल्क्य अपनी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी समेत आश्रम में ही रहा करते थे और उनकी गउएं भी वहीं पर थीं। राम को वनवास के समय अत्रि मुनि के तपोवन में जाने का अवसर मिला था, वे अत्रि मुनि दण्डकारण्य के एक आश्रम में ही रहा करते थे जहां उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को सोने के गहनों से लाद दिया था। कृष्ण और बलराम ने जिन सांदीपनि मुनि से शिक्षा ग्रहण की थी वे सांदीपनि मुनि अपने तपोवन में ही रहा करते थे। आप में से बहुत लोगों ने अपने स्कूली जीवन में एक कहानी पढ़ी होगी। कहानी धौम्य ऋषि की है जिनके आश्रम में आरुणि पढ़ा करते थे। आरुणि ने ही एक रात मूसलाधार बारिश के पानी को आश्रम में प्रवेश करने से रोकने के लिए खुद को रात भर मेढ़ पर लिटाए रखा और आरुणि के इस कठिन कर्म से प्रभावित होकर आचार्य धौम्य ने उनका नाम रख दिया था, उद्दालक आरुणि यानी उद्धारक आरुणि।
आप पढ़ते-पढ़ते थक जाएंगे, बेशक उदाहरण असंख्य हैं। पर क्या इतने उदाहरणों भर से ही पुराने जमाने के तपोवनों और आश्रमों की तस्वीर साफ नहीं हो जाती? यकीनन हो जाती है और तस्वीर यह बनती है इन तपोवनों में बाकायदा पारिवारिक जीवन था। न रहा होता तो कैसे महान याज्ञवल्क्य अपनी दो पत्नियों के साथ ऐसे किसी तपोवन में रहते होते? तस्वीर यह भी बनती है कि तपोवनों में ये परिवार सामान्य सांसारिक जीवन बिताया करते थे, अन्यथा कैसे कण्व के तपोवन में जाकर महाराज दुष्यन्त ऋषि कन्या शकुन्तला से प्रेम और गंधर्व विवाह कर पाते? तपोवन पर्याप्त समृद्ध थे, न होते कैसे याज्ञवल्क्य अपनी सैकड़ों गउओं को वहां रख पाते और कैसे अत्रि-पत्नी अनसूया सीता को सोने के गहनों का अद्भुत उपहार दे पातीं? तपोवनों में विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान की जाती थी इसके बारे में तो शायद ही किसी को शक हो, पर वहां विराट साहित्य की भी रचना हुई। इसका प्रमाण चाहिए तो वेद पढ़ सकते हैं, आरण्यक साहित्यिक पढ़ लीजिए, तमाम उपनिषदें पढ़ जाइए।
यानी जैसे आज शहरों में आपको बस्तियां मिलती हैं, वैसी ही बस्तियां पुराने जमाने में तपोवनों में रही थीं। फर्क बस इतना ही था कि शहरों में शोर था, तपोवनों में शांत वातावरण था। शहरों में व्यस्तता और उससे पैदा होने वाले तनाव थे, तपोवनों के जीवन में सक्रियता बेशक थी, पर मारामारी नहीं थी। शहरों में जीवन विलासितापूर्ण था, तपोवनों में सादगी थी, तामझाम नहीं था और अनावश्यक गहमा-गहमी नहीं थी। अन्यथा तपोवनों में बाकायदा सामाजिक जीवन था, एक अलग तरह का सामाजिक जीवन, जहां लोग परिवार समेत रहते थे, परिवार बढ़ते रहते थे, और तपोवन आत्मनिर्भर थे। अगर जीवन का एक रूप शहरी था, एक रूप ग्रामीण था, तो एक रूप तपोवन था। इन तपोवनों में मानव समाज की तमाम शारीरिक व मानसिक समस्याएं थीं, तपोवन वासी जिनके समाधान अपनी जीवन शैली के हिसाब से तलाशते रहा करते थे।
इसलिए अगर निष्कर्ष यह निकल रहा हो कि भारत नामक देश में जंगलों में भी संस्कृति और सभ्यता का प्रसार कर लिया गया था तो इस निष्कर्ष को हम अद्भुत बेशक मानें, पर इससे चौंकने की इसलिए जरुरत नहीं क्योंकि यह एक सच्चाई थी। हां, एक प्रश्न जरूर उठता है कि क्यों किया गया इस तरह की वन-संस्कृति का विकास? अरण्यों में समाज को बसाने के पीछे क्या कारण थे? जंगलों में जीवन का मंगल पैदा करने के पीछे क्या उद्देश्य रहे होंगे? इसका जवाब तो अभी तलाशते ही हैं, पर उससे पहले हम एक बात फिर से दोहराना चाहते हैं। वह यह कि पश्चिम में जिस जंगल को असभ्यता की निशानी माना जाता है और जिस जंगल के कानून को बर्बरता का पर्यायवाची माना जाता है, वही जंगल हमारे देश में संस्कृति के अद्भुत केंद्र रहे हैं और वहां के बनाए कानूनों से हमारे देश का समाज प्रेरणा व मूल्य बोध प्राप्त करता रहा है।
जवाब तलाशने से पहले हल्के से यह भी बता देने में कोई हर्ज नहीं कि जिन लोगों ने जंगलों में जाकर पूर्ण सुसंसकृत और विकसित समाज बसाने की सोची होगी, वे न केवल प्रकृति और पर्यावरण के साथ अनुराग के स्तर पर जुड़े होंगे, बल्कि हिंसक जंगली जानवरों के प्रति भी उनका मन आत्मीयता से भरा होगा। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति स्वाभाविक स्नेह से खिंचे और जंगली जानवरों के प्रति निडर आत्मीयता से भरे जो लोग जंगलों में तपोवन बनाकर रहते होंगे वे वाकई कोई बड़ा उद्देश्य ही पूरा कर रहे होंगे। सवाल है, क्या था वह उद्देश्य? क्या थे वे लक्ष्य जिन्होंने इस देश में अरण्य संस्कृति को आश्रम जीवन की इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया?
जाहिर है कि जंगलों को जीवन के मंगल से भर देने का एक ही उद्देश्य था कि देश के ज्ञान और विज्ञान की प्रवाहिका नाड़ियों को लगातर स्पन्दित रखा जाए। शिक्षा अगर किसी भी समाज के सर्वांगीण विकास की मूलभूत जरूरत है तो उस जरूरत को पूरा करने वालों का जीवन साधानापूर्ण होना ही चाहिए। शहरों का जीवन कैसे सुविधा सम्पन्न और विलासितापूर्ण था, इसका पता लगाना हो तो आप कृपया वात्स्यायन का कामशास्त्र पढ़ जाइए। उसका नागरिक शहर के विलासमय और आरामपसन्द जीवन का मुखर प्रतीक है। ऐसे नागरकों (नागरिकों नहीं, नागरकों) की विलासमय भीड़ में शिक्षा के उद्देश्य वैसे ही खो जाते हैं जैसे हम उन्हें आज नष्ट होता हुआ देख रहे हैं।
शिक्षा को उसके उद्देश्यों से जोड़े रखने के लिए अगर कुछ लोगों को वन में जाकर नए और अलग किस्म के समाज के विकास का विचार आया तो इसमें हैरानी क्या है। इसीलिए शायद ही पुराने भारत का कोई ऐसा वन हो जिसमें तपोवनों की कोई कमी रही हो और शायद ही कोई ऐसा तपोवन रहा हो जिसमें कोई विद्याकुल न हो। इन विद्याकुलों में छात्र एवं छात्राएं सामाजिक रुतबे और तबके को भूलकर एक साथ ज्ञान और विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन कर सदियों की साधना के परिणाम स्वरूप वह समाज बना सके जिसे हम भारत कहते हैं।
जंगलों में हिंसक पशुओं और पर्यावरण के बीच जब तक संस्कृति प्रसार करने वाला जीवन सहज रूप से उपलब्ध था, तब तक समाज को कोई ऐसा प्रावधान करने की जरूरत नहीं लगी कि मनुष्य के लिए वनवास आवश्यक बना दिया जाए।
जो चीज हमें सहज उपलब्ध होती है, उसे पाने के लिए हम कोई प्रावधान नहीं करते। प्रावधान उसी का करते हैं जो हमें स्वाभाविक रूप से उपलब्ध न हो। इसलिए जब आगे चलकर यह नियम बना दिया गया कि हर मनुष्य को ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन बिताने के बाद वानप्रस्थी हो जाना चाहिए अर्थात वन में प्रस्थान कर जाना चाहिए तो जाहिर है कि तब तक संस्कृति का अद्भुत प्रसार करने वाले इस अरण्य जीवन का पुराना वैभव खत्म हो चुका था। तब लोग सिर्फ आश्रम व्यवस्था की खानापूर्ति के लिए ही वन की ओर प्रस्थान कर लेने के इरादे जाया करते होंगे।
ईसा से दो सौ साल पहले केरल में पैदा हुए संस्कृत के महान नाटककार भास ने अपने कुछ नाटकों में ऐसे तपोवनों का वर्णन किया है और वर्णन शैली से लगता है कि तब तक तपोवनों की सिर्फ याद ही बाकी बची थी। वैसा ही कुछ वर्णन कालिदास से अपने विश्वप्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् में किया है जो भास से कुछ सदी बाद उज्जयिनी में हुए। अन्यथा पुराने भारत में वन जीवन का अपना ही विशिष्ट स्थान हमारे समाज में रहा था। क्रमश: कृषि भूमि का फैलाव होने से जंगल कम होते गए और अरण्य जीवन का ह्रास स्वाभाविक रूप से हो गया। पर कभी देश में अरण्य जीवन समाज की महत्वपूर्ण धारा थी, इसका प्रमाण वे चारों वेद हैं और वह उपनिषद साहित्य है जो तपोवनों में ही मुख्य रूप से लिखा गया है। कितना फर्क पड़ गया है। आज जंगलों को बचाने के लिए कानून बन रहे हैं क्योंकि जंगल ढूंढे नहीं मिलते और इन्हीं जंगलों में हमने अद्भूत सांस्कृतिक जीवन का विकास कभी किया था, उन्हें शिक्षा, ज्ञान और विकास का केन्द्र कभी बनाया था।
(लेखक विश्व संवाद केंद्र भोपाल के प्रभारी एवं शोधार्थी हैं )
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