श्रीस्वामी समर्थ महराज को महाराष्ट्र कर्नाटक और आँध्रप्रदेश में गंगापुर के स्वामी नृसिंह सरस्वती के नाम से भी जाना जाता है ”श्री पाद श्री वल्लभ चरित्र” के अनुसार भगवान दत्तात्रेय ने ३ अवतार लिए जो थे- श्री पाद श्री वल्लभ, नृसिंह सरस्वती- और अक्कल कोट के स्वामी समर्थ महराज । स्वामी जी को कहीं चंचल भारती तो कहीं दिगम्बर स्वामी के नाम से भी जाना जाता है । कहा जाता है कि स्वामी जी का जन्म सन् १२७५ के आसपास हुआ था। पहले स्वामी नृसिंह के रुप में उन्होने अपने भक्तों को ज्ञान दिया । पूर्व स्वरुप में अलग अलग समय पर उन्होने लगभग ४०० वर्द्गा तक तपस्या की इसी तरह वे एक बार हिमालय में लगभग २५० वर्षो से ध्यान व तपस्या में लीन थे। उनके ऊपर चीटिंयों व दीपक की बॉंबी लग गई थी। वे चलित दूनिया से दूर हो गये थे। एक दिन एक लकड़हारे की कुल्हाड भी धोखे से बॉंबी पर गिर गई जब उसने कुल्हाडी उठाई तो उसे खून के धब्बे दिखाई दिये उसने वहां की झाडी व बॉंबीयों की सफाई की तो देखा की एक बुजुर्ग योगी साधना में लीन थे। घबराकर वह योगीराज के चरणों पर गिर पडा और ध्यान भंग करने की क्षमा मांगने लगा। स्वामी जी ने आंखे खोली और उससे कहा कि तुम्हारी कोई गलती नही है यह मुझे फिर से दुनिया में जाकर अपनी सेवाएं देने का दैविय आदेश है।नये स्वरुप में सन् १८५४ से ३० अप्रेल १८७८ ( २४ वर्ष ) तक अक्कलकोट में रहकर लगभग ६०० वर्ष की आयु में उन्होने महासमाधि ली कहते है कि वे बहुत जगह घुमे और गुरु की तरह कई महान आत्माओं को आध्यात्मिक चेतना प्रदान की इनमें से कुछ प्रमुख हैं – स्वामी राम कृष्ण परमहंस, च्चिरडी के साईं बाबा, श्री शंकर महराज, शेगांव के श्री गजानंद महराज, श्री देव मामलेदार, श्री बालप्पा महराज, श्री चोलप्पा महराज, पुणे के श्री रामानंद बीड़कर महराज इत्यादि ।
कहते हैं कि स्वामी जी पैदा होते ही केवल ओम का उच्चारण करते थे ८ वर्ष के उम्र तक ओम तथा ओमकार के अलावा उन्होने कुछ नही कहा । उनके जनेउ कार्यक्रम के बाद यकायक वे चारों वेदों को उच्चारित करने लगे । फिर वे तपस्या करने काच्ची के तरफ निकल पडे । उनकी भक्ती व तप से प्रसन्न होकर स्वामी श्री कृष्ण सरस्वती ने उन्हे दीक्षा दी । स्वामी जी शिव भक्त थे गुरुओं के महानता के बारे में वे कहते थे कि गुरु की कल्पना या चित्र भी ध्यान करने के योग्य होता है । गुरुओं के पैर या चरण पादुका भी पूजा करने के योग्य होता है । गुरु के वचन मंत्र के तरह होते हैं और गुरु के बिना मुक्ति बहुत मुस्किल होती है । स्वामी समर्थ अपने शिष्यों से अक्सर कहते थे कि आलसी व्यक्ति का चेहरा भी मत देखो अपने जीवन यापन के लिए मेहनत करो और पसीना बहाओ नशा मत करो नशा आद्यात्म की पटरी से आदमी को उतार देता है । धर्म के रास्ते पर जीत अवस्य होती है । गुरु की कृपा या साथ पाने के लिए अहंकार और शर्म छोडना चाहिए । वे कहते थे कि भाग्य का लिखा होकर रहेगा । भगवान कृष्ण की उपस्थिती में भी अभिमन्यु को मौत आई । वे कहते थे कि मूर्ति पूजा के बाद आत्म मंथन कर तपस्या की ओर बढें उनके अनुसार बिना फल की इच्छा सत्कर्म करने वालों को ज्यादा जल्दी कृपा प्राप्त होती है। स्वामी जी कहते थे – कोई भी कारण हो, अन्दर से गुस्सा नही करें। चीडे नही, चिल्लाकर झगडे नही, मन को शांत रखें, विचार करें, तकलीफ भी केवल तुम्हे होनी हैं और सुख भी केवल तुम्हे मिलना है। मन की शांति से तुम्हे सुख प्राप्त होगा। किसी भी बात पर विचार करने में विलक्षण शक्ति होती है। तुम्हारा भला करने का प्रचंड सामर्थ, तुम्हारे विचार में होता है। कहने का तात्पर्य यह है यदि तुमने विचार बदला तो तुम्हारा भाग्य बदल जायेगा।स्वामी जी ने महिलाओं तथा पुरुषो में कभी भेदभाव नही किया । वे कहते थे कि सच्चा साधु वही है जिसके दर्शन मात्र से पाप धुल जाते हैं । और अच्छे कार्य करनें की सद्बुद्धि प्राप्त होती है ।
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