नई दिल्ली, 23 नवंबर (आईएएनएस)। नई दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे 35वें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले के राजस्थान मंडप में प्रदेश के सिद्धहस्त शिल्पियों के साथ ही ‘थेवा-कला’ से बने आभूषण व्यापार मेले में महिलाओं के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं।
राजस्थान मंडप में प्रदेश के एक से बढ़कर एक हस्तशिल्पी अपनी कला से दर्शकों को प्रभावित कर रहे हैं, लेकिन थेवा कला से बनाए गए आभूषणों की अपनी अलग ही पहचान है।
शीशे पर सोने की बारीक मीनाकारी की बेहतरीन ‘थेवा-कला’ विभिन्न रंगों के शीशों (कांच) को चांदी के महीन तारों से बनी फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरने की अनूठी कला है, जिन्हें कुशल और दक्ष हाथ छोटे-छोटे औजारों की मदद से बनाते हैं।
पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली इस कला को राजसोनी परिवार के पुरुष सीखते हैं और वंश परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। इसी ‘थेवा-कला’ से बने आभूषणों का प्रदर्शन व्यापार मेला में ‘ज्वेल एस इंटरनेशनल’ द्वारा किया जा रहा है, जो मंडप में आने वाले दर्शकों को अपनी ओर खींच रहे हैं।
थेवा कला की शुरुआत 300 वर्ष पूर्व दक्षिणी राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में हुई थी। इस तकनीक का स्थानीय नाम थेवा है, जिसका अर्थ है ‘सेटिंग’। इस बेजोड़ ‘थेवा कला’ को जानने वाले देश में अब गिनेचुने परिवार ही बचे हैं। ये परिवार प्रतापगढ़ जिले में रहने वाले ‘राज सोनी घराने’ के हैं।
इस अति सुंदर और अनूठी कला को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार द्वारा वर्ष 2004 में इस पर एक डाक टिकट जारी किया गया था।
राजस्थान मंडप में लगाए गए स्टॉलों के प्रबंधक ने बताया कि थेवा कला को बढ़ावा देने के लिए 1966 के बाद से अब तक 10 राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जा चुके हैं और 2009 में थेवा कला को राजीव गांधी राष्ट्रीय एकता सम्मान से नवाजा जा चुका है।
इस कला में पहले कांच पर सोने की शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे ‘थारणा’ कहा जाता है। दूसरे चरण में कांच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से बनाई जाने वाली फ्रेम का कार्य किया जाता है, जिसे ‘वाडा’ कहा जाता है।
इसे तेज आग में तपाया जाता है, जिससे शीशे पर सोने की कलाकृति और खूबसूरत डिजाइन उभरकर एक नायाब और लाजवाब आकृति बन जाती है। इन दोनों प्रकार के काम और शब्दों से मिलकर ‘थेवा’ नाम की उत्पत्ति हुई है।
प्रारंभ में ‘थेवा’ का काम लाल, नीले और हरे रंगों के मूल्यवान पत्थरों हीरा, पन्ना आदि पर ही उकेरी जाती थी, लेकिन अब यह कला पीले, गुलाबी और काले रंग के कांच के बहुमूल्य रत्नों पर भी उकेरी जाने लगी है।
प्रारंभ में थेवा कला से बनाए जाने वाले बॉक्स, प्लेट्स, डिश आदि पर लोककथाएं उकेरी जाती थीं, लेकिन अब यह कला आभूषणों के साथ-साथ पेंडल्स, इयर-रिंग, टाई और साड़ियों की पिन कफलिंक्स, फोटोफ्रेम आदि फैशन में भी प्रचलित हो गई है।
थेवा कला को आधुनिक फैशन की विविध डिजाइनों में ढालकर लोकप्रिय बनाने के प्रयासों में जुटे जयपुर की ‘जेवल ऐस’ उपक्रम के मुख्य निष्पादन अधिकारी बताते हैं कि राजस्थान मंडप को लुप्त होती जा रही इस अनूठी कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार से परिचित कराने और लोकप्रिय बनाने का श्रेय जाता है।