आधुनिक वैज्ञानिक युग में यज्ञ व हवन आदि वैदिक अनुष्ठानों को अंधविश्वास कहकर उनका उपहास उड़ाने वाले लोगों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। दरअसल ऐसे लोगों को यज्ञ-हवन आदि कर्मकांडों के वैज्ञानिक स्वरूप की रंच मात्र भी जानकारी नहीं है। यदि ऐसे लोगों को जानकारी होती तो वे इन कर्मकांडों के संदर्भ में अपनी अज्ञानता का ढिंढोरा न पीटते। यज्ञ-हवन के कर्मकांडों को विज्ञान की कसौटी पर कसने के लिए पिछले कुछ सालों में पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने कई तरह के प्रयोग किए हैं। इन वैज्ञानिक प्रयोगों के नतीजों से यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आयी है कि भारतीय ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले जिस ज्ञान का खुलासा किया था वह कितना वैज्ञानिक था। उदाहरणस्वरूप फ्रांस के वैज्ञानिक त्रिले ने यज्ञ-हवन क्रियाओं के संदर्भ में जो अनुसंधान किए हैं वे आंख खोलने वाले हैं। त्रिले के अनुसार यज्ञ-हवन में जो काष्ठ या लकड़ी जलाई जाती है, उससे फार्मिक आल्डीहाइड नामक एक गैस उत्पन्न होती है। त्रिले के अनुसार यह गैस जीवाणुओं को नष्टकर वातावरण-पर्यावरण को स्वच्छ रखने में पूणर्त: समर्थ है।
भारत के अतिरिक्त चीन, जापान, जर्मनी और यूनान आदि देशों में अग्नि को पवित्र माना जाता है। इन देशों में विभिन्न प्रकार की धूप जलाने का चलन है। वस्तुत: अग्नि में जो वस्तु जलाई जाती है उसका स्वरूप सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जाता है। आधुनिक परमाणु वैज्ञानिकों ने अब इस तथ्य को पूर्णत: आत्मसात कर लिया है कि स्थूल से सूक्ष्म कहीं अधिक शक्तिशाली है। अग्नि में किसी पदार्थ के जलने पर उसके स्वरूप में काफी हद तक गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। जैसे अगर कोई व्यक्ति स्थूल रूप में किसी जहर को खा ले तो वह शीघ्र ही मर जाएगा। वहींआयुर्वेद शास्त्र कहता है कि यदि उसी विष को अग्नि संस्कार के द्वारा सूक्ष्मतर बनाकर उसका उचित व सम्यक मात्र में सेवन किया जाए तो वही विष अपने इस नए रूप-स्वरूप में व्यक्ति को रोगमुक्त कर उसे स्वस्थ व बलशाली बना सकेगा।