लेकिन यह सवाल अभी भी हवा में लहरा रहा है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत की विदेशी नीति क्या होगी? भारत अन्य देशों के साथ कैसे रिश्ते रखेगा?
विभिन्न जन-सर्वेक्षणों ने आम चुनाव के विभिन्न परिणाम प्रस्तुत किए हैं, लेकिन ये सभी जन-सर्वेक्षण लोकसभा की 272 सीटों के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं क्योंकि बहुमत पाकर सरकार बनाने के लिए कम से कम 272 सीटों की ज़रूरत होगी। ज़्यादातर जन-सर्वेक्षणों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्त्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (राजग) को 249 से 290 तक सीटें मिलने की भविष्यवाणी की जा रही है। इसलिए अगर राजग को बहुमत मिलने में दस-बीस सीटों की कोई कसर रह भी जाएगी तो वह कसर किन्हीं छोटी पार्टियों या स्वतन्त्र रूप से जीतकर आए सांसदों के साथ गठजोड़ करके पूरी की जा सकती है।
लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भारत के जन-सर्वेक्षणों के बारे में बड़े विश्वस्त ढंग से यह कहा जा सकता है कि वे अक्सर खरे नहीं उतरते हैं, पर इस बार शायद ऐसा नहीं होगा। रेडियो रूस के विशेषज्ञ और रूस के सामरिक अध्ययन संस्थान के विद्वान बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
देश के भीतर नरेन्द्र मोदी की भावी सरकार की रणनीति क्या होगी, इसके बारे में बहुत-कुछ स्पष्ट कहा जा सकता है क्योंकि गुजरात में 12 साल के उनके शासन से इस विषय में बहुत-कुछ का अन्दाज़ हो जाता है। यह बात साफ़ है कि मोदी देश की आर्थिक समस्याओं को सुलझाने की ओर ही विशेष ध्यान देंगे तथा व्यावसायिक और औद्योगिक परियोजनाएँ लागू करके भारत को उस आर्थिक संकट से मुक्ति दिलाने की कोशिश करेंगे, जो पुरानी सरकार की असफल नीतियों के कारण भारत पर छाया हुआ है।
इसी तरह यह बात भी साफ़ है कि मोदी के विरोधी साम्प्रदायिक पत्ते को आगे भी खेलने की कोशिश करेंगे। देश के ज़्यादातर मुसलमान नरेन्द्र मोदी के बारे में उन पूर्वाग्रहों को बनाए रखेंगे, जो भारत के मीडिया ने और विदेशी मीडिया ने उन पर लाद दिए हैं कि वे ’हिन्दू राष्ट्रवादी’ हैं। इसमें अन्तर्विरोध यह है कि नरेन्द्र मोदी ख़ुद को हर जगह एक ऐसे उम्मीदवार के रूप में पश करने की कोशिश करते रहे हैं, जो धार्मिक और जातीय भावनाओं से ऊपर है, लेकिन उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्ष समाज की उपेक्षा करके धार्मिक पत्ता खेलने की कोशिश कर रही है। बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
भारत की भावी सरकार की विदेश-नीति क्या होगी, बस यही सवाल साफ़ नहीं है। अपने चुनाव-प्रचार के दौरान ख़ुद मोदी ने विदेशनीति से जुड़े जिन सवालों पर थोड़ा-बहुत कुछ कहा है तो सिर्फ़ इस बारे में कि भारत के पड़ोसी देशों पाकिस्तान, चीन और बंगलादेश के साथ भारत के रिश्ते कैसे होंगे। और अपने कथनों में उन्होंने हमेशा कठोर नीति अपनाने का ही समर्थन किया है। लेकिन जैसाकि बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है — मोदी ने भारत के पड़ोसियों के ख़िलाफ़ जो भी बातें कही थीं, वास्तव में वे बातें देश में अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ बल्कि कहना चाहिए कि भारत की वर्तमान सरकार के ख़िलाफ़ कही थीं।
अब चीन में और पाकिस्तान में भी यह आशा की जा रही है कि नई सरकार के आने से भारत के साथ सम्बन्ध बेहतर हो जाएँगे। मोदी को एक व्यवहारिक राजनीतिज्ञ माना जाता है। बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
शायद नरेन्द्र मोदी के शासन में भारत की विदेश नीति से जुड़ा जो सबसे प्रमुख सवाल होगा, वह यह सवाल होगा कि अमरीका और भारत के बीच रिश्ते कैसे होंगे। अमरीकी विदेश मन्त्रालय ने सन् 2005 में नरेन्द्र मोदी को अमरीका का वीजा देने से मना कर दिया था। उसके बाद मोदी ने अमरीका से वीजा कभी नहींं माँगा। और अमरीकी अधिकारियों का अभी हाल तक यह कहना था कि मोदी के बारे में उनकी नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
मंगलवार को भारतीय समाचार पत्र ’टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ ने भावी भारत-अमरीकी रिश्तों का एक विश्लेषण प्रकाशित किया है। इस विश्लेषण पर अख़बार ने शीर्षक लगाया है — ’अबकी बार मोदी सरकार? अमरीका तैयार’। इस लेख में राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित अमरीकी अधिकारियों के उन कथनों को भी शामिल किया गया है, जिनमें उन्होंने यह आशा व्यक्त की है कि नई सरकार पुरानी सरकार की तरह ही भारत-अमरीकी रिश्तों को बनाए रखेगी। लेकिन इस लेख के लेखक ने इस ओर भी ध्यान दिलाया है कि किसी भी कथन में कहीं भी नरेन्द्र मोदी का नाम नहीं लिया गया है। बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
वास्तव में हर नई सरकार के आने पर भारत की विदेश-नीति पुरानी ही रही है। इसलिए भारत और अमरीका के रिश्ते ठण्डे पड़ जाएँगे, इस तरह की बात नहीं कही जा सकती है। लेकिन यह बात साफ़ है कि अमरीका मोदी को प्रधानमन्त्री के रूप में प्राथमिकता नहीं देता है और ख़ुद मोदी भी उस नाराज़गी को शायद ही भुला पाएँगे, जो अमरीका ने सन् 2005 में उन्हें वीजा न देकर उनके मन में पैदा कर दी थी। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में प्रकाशित लेख के लेखक ने अपने लेख के अन्त में लिखा है — ऐसा लगता है कि नरेन्द्र मोदी जापान और चीन जैसे एशियाई प्रशान्त महासागरीय इलाके के देशों के साथ रिश्तों का विकास करने को प्राथमिकता देंगे। और इससे पूरे पूर्वी यूरोएशिया में टकरावरहित एकजुटता स्थापित करने की बड़ी व्यापक सम्भावनाएँ सामने आएँगी।