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 मुर्गी खाने वालो, सावधान! (व्यंग्य) | dharmpath.com

Sunday , 20 April 2025

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मुर्गी खाने वालो, सावधान! (व्यंग्य)

लखनऊ, 22 मार्च (आईएएनएस/आईपीएन)। ‘मुर्गी खाने वालो, सावधान!’ की रट लगाते आज नारद जी से फिर मुलाकात हो गई, किंतु अपने ऊपर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि यह नारद जी ही हैं या कोई और है। मन में यह प्रश्न कौंध गया कि नारदजी ऋषि हैं, महर्षि हैं, उनको मुर्गी से क्या लेना देना? इसलिए मैंने गौर से उन्हें देखा ही था कि नारदजी की कड़कती आवाज ने मेरे भ्रम को तोड़ दिया।

लखनऊ, 22 मार्च (आईएएनएस/आईपीएन)। ‘मुर्गी खाने वालो, सावधान!’ की रट लगाते आज नारद जी से फिर मुलाकात हो गई, किंतु अपने ऊपर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि यह नारद जी ही हैं या कोई और है। मन में यह प्रश्न कौंध गया कि नारदजी ऋषि हैं, महर्षि हैं, उनको मुर्गी से क्या लेना देना? इसलिए मैंने गौर से उन्हें देखा ही था कि नारदजी की कड़कती आवाज ने मेरे भ्रम को तोड़ दिया।

मैं नारद जी के चरण स्पर्श करने लपका ही था कि उन्होंने डांटते हुए कहा, “अभी तो आंखें फाड़कर मेरी तरफ घूर-घूर के देख रहा था और अब पैरों में पड़ा ऐसे भीख मांग रहा है जैसे मुर्गी खाने वाले अपनी जान की भीख मांग रहे हों।”

मैंने नारदजी के पैर पकड़कर कातरवाणी में कहा, “महर्षि जी! मैं तो शाकाहारी हूं, न तो मुर्गी खाता हूं और न ही उसके अंडे खाता हूं। हां, अलबत्ता टीवी पर विज्ञापन जरूर सुन लेता हूं – संडे हो या मंडे, रोज खाओ अंडे। सो देवर्षि जी! आगे से जब यह विज्ञापन टीवी पर आएगा तो मैं अपने दोनों कान बंद कर लूंगा, दोनों आंखें बंद कर लूंगा या फिर हमेशा के लिए गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी बांध लूंगा।”

मेरी इतनी बात सुनते ही नारद जी क्रोधित हो गए। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। मैंने नारद जी! को इतने क्रोध में पहले कभी नहीं देखा था। सो मैं चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा। इतने पर भी नारद जी का गुस्सा शांत नहीं हुआ। वह कुपित स्वर में बोले, “तू अपने को ज्यादा बुद्धिमान समझता है, अपने को बहुत बड़ा लेखक समझता है, अपने को बहुत बड़ा पंडित समझता है। हमको झूठ बोलकर गुमराह करना चाहता है अक्ल के दुश्मन कहीं के!”

मैंने पैर पकड़ते हुए कहा, “महर्षिजी! मुझसे क्या अपराध हो गया है? मैं समझ नहीं पा रहा हूं।” इतना सुनते ही नारद जी फिर भड़क उठे। बोले, “अच्छा मैं अब समझा। तू धूर्त और चालाक तो है ही, साथ में झूठा भी है। बड़ी चालाकी से कह रहा है कि दोनों आंखें बंद कर लूंगा, दोनों कान बंद कर लूंगा। अरे बेईमान कहीं के, मुर्गी और अंडे क्या कानों से खाए जाते हैं, क्या आंखों से खाए जाते हैं। अरे वह तो मुंह से खाए जाते हैं और मुंह बंद करने की बात तू साफ टाल गया है बड़ी चालाकी से!”

“नहीं, भगवन ऐसा नहीं है, मेरी मंशा आपको गुमराह करने की कदापि नहीं है। मैं तो सच-सच बता रहा हूं कि मैं तो शाकाहारी हूं, मुर्गी-अंडे की बात तो दूर, मैं तो प्याज, लहसुन भी नहीं खाता हूं।”

इतनी बात सुनते ही नारदजी फिर भड़क उठे, क्रोधित हो बोले, “अरे पंडित की औलाद! तुझ जैसे पाखंडी पंडितों ने ही तो सब सत्यानाश किया है। न वेद के बारे में जानते हो, न रामायण के बारे में, गीता से तो तुम्हारा दूर-दूर तक वास्ता नहीं है और दुहाई दे रहे हो अपने पंडितगीरी की।”

वह बोलते रहे, “अरे अक्ल के दुश्मन! पंडित वह होता है जो ज्ञानी होता है, जिसे तीनों लोकों का ज्ञान होता है, जिसे चारों वेद कंठस्थ होते हैं, अठारहों उपनिषद जिसकी जबान पर होते हैं, गीता और रामायण को जो आत्मसात कर लेता है। किसी पंडित के घर में जन्म लेने से कोई पंडित थोड़े ही हो जाता है!”

आगे बोले, “और फिर तू ठहरा निपट गंवार, तुम जैसे हजारों और लाखों ढोंगी पंडित आजकल सरेबाजार मुर्गियां नोंच रहे हैं, उनके चूजों को मसल रहे हैं, उनके अंडों को देखकर उनकी लार टपक रही है। तभी तो मुर्गी आजकल बाजार से गायब हो गई है और वह बर्ड-फ्लू बीमारी से ग्रसित हो गई है।”

देवर्षि का ताना आगे बढ़ा, “अरे पाखंडी कहीं के! ऊपर वाले ने फल से लेकर साग-सब्जी, दाल, गेहूं, दूध, मक्खन, पनीर, तेल, घी, मिठाई-सिठाई अनेक चीजें दी हैं तुझे खाने को, इतने पर भी तेरा पेट नहीं भरता है और फिर भी तुम अनाप-शनाप मुर्गी, अंडा, चूजा सब खा जाते हो। अरे! जिनका कोई नहीं होता है, उनका ऊपर वाला होता है। आखिर तुम्हारे तो मुंह में खून लग गया था। तुम तो न मुर्गी छोड़ रहे थे, न उनके चूजे छोड़ रहे थे और उनके अंडों को कच्चा ही खा रहे थे।”

नारद उवाच, “आखिर ऊपर वाले को तरस आया इन बेचारी बेजुबान मुर्गियों पर! सो तान दी ‘बर्ड-फ्लू’ की अपनी छतरी। अब भागे-भागे घूम रहे हैं, मुर्गी खाने वाले कह रहे हैं मुर्गियों को मारो, इनको बर्ड-फ्लू हो गया है। अगर इनको न मारा तो हम मर जाएंगे। इनको अपने मरने की चिंता है, मुर्गियों के मरने की नहीं। उनको तो अभी तक पका-पका कर बड़े चाव से खा रहे थे।”

देवर्षि का स्वर तल्ख हुआ, “अरे अक्ल के दुश्मन! मुर्गियों के भी जान हैं, उनके अंदर भी तो जीवात्मा है। बस फर्क यह है कि तुम ताकतवर हो और वह असहाय है, निर्बल है, कमजोर है, क्या यही है उनका अपराध? इसीलिए उन्हें चबा-चबा कर खाते हो? अरे नामुराद! अब तो रहम करो इन बेजुबान जानवरों व पक्षियों पर! अब तो हत्या बंद करो इनकी, अब तो खाना बंद करो इनको।”

बात को बकरी तक ले गए, “अरे! ऊपर वाले ने खाने के लिए बहुत-सा इंतजाम किया है, उसी से पेट भर लो अपना। मेरी नहीं सुनते हो तो कबीर दास की ही सुन लो, जिन्होंने कहा है – बकरी खाती पात है, ताकी काढ़ी खाल। जो नर बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल।”

इतना कहकर नारद जी अंतध्र्यान हो गए। मेरी आंख खुली तो पता चला कि मैं तो सपना देख रहा था, किंतु सपने में ही सही, कह तो नारद जी सोलह आने सच गए हैं।

(व्यंगकार पं. हरि ओम शर्मा ‘हरि’ की कई किताबें प्रकाशित हैं)

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