आदरणीय भारद्वाज जी, उपस्थित सभी महानुभाव, माता, बंधु भगिनी
वास्तव में वक्ताओं ने यहां पर जो कहा, उतना कहना ही काफी है. परंतु यहां बहुत सारे दानदाता बैठे हैं, बहुत सारे कार्यकर्ता बैठे हैं. वे सब लोग इस काम में अपना अपना योगदान कर रहे हैं. तो मेरा योगदान क्या है, मेरा योगदान बोलना है. आजकल मैं यही काम करता हूं, और कुछ करता नहीं. मेरे पास इतना ही है, जितना है वह बता देता हूं. यहां भी एक तरह से मेरी यह एक सेवा ही मानिये, आप लोगों को और थोड़ी देर बिठाए रखने के लिये, आप लोगों को उपदेश देने के लिये नहीं बोल रहा हूं. अपने अपने तरीके से सब लोग अपनी सेवा दे रहे हैं, मैं अपने तरीके से एक छोटी सी सेवा दे रहा हूं. क्योंकि जैसा आपने अभी अनुभव किया, यहां आकर जो देखेगा, वो सेवा करने वाला बन जाएगा. यहां सेवा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है, सेवा की अपनी जो कल्पना है, उसका दर्शन होता है.
युधिष्ठर महाराज ने युद्ध जीतने के बाद राजसूय यज्ञ किया, यज्ञ में पूर्णाहुति होने के बाद वहां एक नेवला आ गया. और नेवला यज्ञ कुंड के आस पास की धुली में लोट पोट होने लगा. उपस्थित लोगों ने देखा, उसका आधा शरीर सोने के था, नेवला वापिस जाने लगा तो युधिष्ठिर ने उससे पूछा, कि यहां क्यों आये थे. यहां लोट पोट होने का मतलब क्या है. और वापिस क्यों जा रहे हो.
नेवले ने कहा कि आपके यज्ञ से मुझे पुण्य लाभ होगा, ऐसा मुझे लगा, क्योंकि आप बड़े धर्मात्मा के नाते प्रसिद्ध हैं, लेकिन मैं निराश होकर वापिस जा रहा हूं. युधिष्ठिर ने पूछा मतलब क्या.
नेवले ने उत्तर दिया, देखो मेरा आधा अंग सोने का बन गया, यह कैसे बन गया. अकाल के दिनों में एक परिवार को खाने को सत्तू मिला, उसी समय परिवार के समक्ष अपना कुत्ता लेकर तथाकथित चांडाल आ गया. उसने खाने को मांगा, पहले गृह स्वामी ने अपना हिस्सा चांडाल को दे दिया, बाद में पत्नी, लड़के सभी ने अपना हिस्सा दे दिया. स्वयं भूखे रहे, फिर चांडाल ने पानी मांगा, पानी पी लिया, अपने कुत्ते को भी सब दिया, और वहां से चला गया. परिवार भूखा रहा, परिवार की भूख के कारण मृत्यु हो गई.
बाद में मैं वहां गया, और वहां की धूल में सना मेरा आधा शरीर सोने का हो गया, इतना उनका पुण्य था. मैंने सोचा आपके यज्ञ में भी उतना ही पुण्य होगा, लेकिन नहीं मिला.
वास्तव में नेवला युधिष्ठिर को यह बताने गया था कि अपनी सेवा पर गर्व मत करो, सेवा में अहंकार नहीं होता, किसी प्रकार से सेवा में अहंकार नहीं. दुनियादारी में सेवा करना हम लोग बहुत बड़ी बात मानते हैं, माननी भी चाहिये. और अनुकरण भी करना चाहिये. हम लोग मनुष्य के नाते जन्म लेते हैं, तो विकारों की गठरी भी साथ में मिलती है. दुनिया की चकाचौंध में खुद को भुलाने वाले हिंदू लोग भी मिलते हैं, इसके चलते बहुत लोग आते हैं और बिना सेवा किये चले जाते हैं, ऐसे जगत में सेवा करने वाले लोगों का सदा प्रोत्साहन करना चाहिये. लेकिन सेवा करने वाले क्या सोचते हैं, हमने सेवा की तो कौन सा बड़ा काम किया.
मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं, मनुष्य तो वह होता है जो अपने जीवन से दूसरों की सेवा करता है. पशु सेवा नहीं करता, पशु स्वयं के लिए सोचता है. भगवान ने उसको वैसी ही प्रकृति दी है. उसको जन्म मिलता है, तो वो सोचता नहीं उसको जन्म क्यों मिला, मुझे इस जन्म में क्या करना है. मेरी मौत अच्छी हो वो इसके लिए भी नहीं सोचता, वो सोचता है, उसे जन्म मिला है, जब तक मौत नही आती है, तब तक जीवित रहना है.तो अपने लिए खाता है, पशु सदा पशु रहता है, वो शैतान नहीं बनता और न ही वो भगवान बनता है.उसको जब भी भूख है, जहां से रोटी मिलेगी, वहां से खाएगा. अपमान मिले, मान मिले, दूसरों की छीननी पड़े, चोरी करनी पडें तो भी वो खाएगा. भूख लगी है तो खाएगा और भूख नही है, तो देखेगा भी नहीं. बैल को जब तक भूख है, घास खाता है, उसके निकट दूसरे बैल को आने नहीं देता, उसका पेट भर गया, तो खाना छोड देता है और उसकी और देखता भी नहीं, उस घास को कौन खाता है, क्या होता है, उसकी चिंता नहीं.
भूख न होने पर वो कल के लिये भी नहीं सोचता है. जिस समय उसे भूख लगती है, तब के लिये वो सोचता है, कल के लिए नहीं सोचता है, कल मिलेगा या नहीं, इसकी भी चिंता नहीं. पशु कभी राक्षस नहीं बनता, और न ही भगवान बनता, पशु कभी सेवा नहीं करता, दूसरों की सेवा भी थोड़ी बहुत अपने लिये करता है.
लेकिन मनुष्य के पास बुद्धि है. बुद्धि को स्वार्थ में लगाए तो राक्षस बन जाएगा और परोपकार में लगाए तो नारायण बन जाएगा. ये ताकत दी होने के कारण मनुष्यों के सामने अपनी करनी से नारायण बनने का मार्ग प्रशस्त करने वाले काम जो-जो लोग करते हैं, उनकी हमें सराहना करनी चाहिये तथा उनका सहयोग करना चाहिये. परंतु वो ऐसा नहीं सोचते है, वो कहते कि हम मनुष्य हैं तो हम यही करेंगे, पशु थोड़े ही हैं. हमको भगवान ने बुद्धि दी है भगवान बनने के लिये, हम बनेंगे. ये स्वाभाविक बात के लिए वो करते है. मनुष्य के हृदय का ये गुण है, संवेदना, करुणा, प्रेम है. उससे दूसरों का दुख नहीं देखा जाता. इसलिए राजा रंती देव से जब पूछा गया क्या चाहिए तो उसने कहा मुझे राज्य नहीं चाहिये, ना स्वर्ग चाहिए, न मुक्ति चाहिये. दुख तप्त प्राणियों के दुख को दूर करने के लिये मुझे इसी लोक में जिंदा रखो.
अकाल में रंतीदेवा राजा, रानी, राजकुमार, राज कन्या थे, थोड़ा अन्न था. एक भिक्षु आ गया, उसने सारा मांगकर खा लिया. पानी पी लिया, राजा की आंख में आंसू देखे तो कहा कि तुमको बुरा लगता था तो क्यों दिया. राजा ने कहा कि बुरा आपके खाने का नहीं लगा, मेरे पास सब समाप्त हो गया और तुम अभी गए नहीं दरवाजे के सामने से, तुमको अभी अधिक आवश्यकता होगी और तुमने मांग लिया तो मेरे पास है नहीं कुछ देने के लिये, इसका दुख है.
इसी दौरान इंद्र देव प्रकट हो गये, और बोले तुम्हारी परीक्षा ली थी, जिस पर तुम पूरा उतरे. बोलो तुम्हें क्या चाहिये, कौन सा लोक चाहिये. इच्छानुसार तुम्हें जो पद चाहिये वो मिलेगा. राजा ने कहा भगवान ये सब नहीं चाहिये, दुख तप्त प्राणियों के दुख को दूर करने के लिये मुझे इसी लोक में जिंदा रखो, ले मत जाओ, जिंदगी ऐसी चाहिये, इसीलिये चाहिये.
हमारे यहां सेवा ऐसे की जाती है, कुछ नहीं चाहिये. जो दुखी है, उसका दुख दूर करना. मदर टैरेसा की जगह यहां नहीं होगी. सेवा बहुत अच्छी होती होगी, लेकिन उसके पीछे एक उद्देश्य रहता था, जिसकी सेवा होती है, वह कृतघ्नता से इसाई बन जाए, कोई किसी को ईसाई बनाना चाहे या न बनाना चाहे इसका प्रश्न है. परंतु, सेवा की आड़ में वो किया जाता है तो उस सेवा का अवमूल्यन हो जाता है. हमारे यहां तो ऐसा कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं चाहिये. हमारे देश में सेवा ऐसे की जाती है, निरापेक्ष, पूर्ण निरपेक्ष. और उसमें भावना यह कि जिनकी सेवा की जाती है वह मानते होंगे कि सेवा करने वाले के रूप में भगवान मिला. लेकिन सेवा करने वाला कहता है कि सेवा का अवसर देकर मेरे जीवन को स्वच्छ करने वाला भगवान मेरे सामने है. अहंकार भी नहीं है, मैं इनका उद्धार नहीं कर रहा हूं, पर ये मुझे सेवा का अवसर देकर मेरे जीवन का उद्धार करने के लिये एक सुविधा दे रहे हैं. एक साधन दे रहे हैं. समाज में ऐसी संवेदना जब हम एक दूसरे के प्रति रखते हैं. तो फिर उस समाज को कोई तोड़ नहीं सकता, उस समाज को कोई गुलाम नहीं कर सकता, उस समाज का सर्वथा दुनिया में भला ही होता है. अगर अपने देश के लोगों के बारे में कुछ षड्यंत्र चल रहे हैं, और हम अपने देश के होने के बावजूद कोई संवेदना नहीं, वहां जाएंगे नहीं तो फिर जो होना है, वो होता है. हां, जाने में कभी ताकत रहती है, कभी नहीं रहती है, कई बार जाने की परिस्थिति रहती है, नहीं रहती है, लेकिन क्या कारण रहा कि आप गये नहीं, परिस्थिति नहीं थी, लेकिन परिणाम तो वही आता है. आप समय पर पहुंचे तो अनर्थ टल गया, नहीं पहुंचे तो अनहोनी हो गयी.
आग में हाथ आपने गलती से डाला या जानबूझकर डाला, यह आग नहीं सोचती. ऐसे ही संपूर्ण देश में अगर आज अपने देश के लोगों को कुछ दिखाना है, बाहर से लोग आएंगे, उन्हें यहां के बाशिंदे दिखाएंगे, स्थानीय नागरिक दिखाएंगे. लेकिन अपने देश के बालकों को क्या दिखाना है, देश का गौरव बढ़ाने वाले स्थल दिखाने हैं, देश का गौरव मन में उत्पन्न करने वाले स्थल दिखाने हैं, और देश के प्रति अपना कर्तव्य का भाव जगाने वाले स्थान दिखाने हैं. आधुनिक समय में जहां जाने से देश के प्रति गौरव जगता है, जहां जाने से देश के प्रति कर्तव्य अपनी आंखों के सामने साफ होता है, ये दो स्थान वास्तविक तीर्थ स्थल हैं. ये बड़ा आनंद है, मैं पांच दिन रहा हूं भरतपुर में, मुझे दोनों प्रकार के तीर्थ स्थलों का दर्शन करने का भाग्य प्राप्त हो गया. राणा सांगा के संग्राम स्थल पर गया था, महाराजा सूरजमल के राजमहल और किले का दर्शन किया, एक गौरव जागा. जिस वीरता के साथ और दृढ़ता के साथ हमने अपने देश की प्रकृति, संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिये कुशलतापूर्वक, वीरतापूर्वक प्रयास किये, ये हमारी विरासत है, गौरव है. और आज यहां आकर देख रहा हूं कि क्या कर्तव्य है देश के प्रति हमारा सबका.
भारत के सामने बहुत सारी समस्याएं हैं, ये भी हो रहा है, वो भी हो रहा है, मानो जैसे आसमान फट रहा है, तो पैचअप कहां कहां करना, कितनी जगह करना ऐसी स्थिति है. रामकृष्ण परमहंस ने भी कहा है कि शिव भावे, जीव सेवा, सबका समाधान हो जाएगा. इतनी जगह से कट रहा है, इसका कारण यह है कि हम जोड़ने वाली बात का ध्यान ही नहीं रख रहे, और जोड़ने वाली बात यह है. घट-घट में राम है, शिव विद्यमान है, शिव भावे, जीव सेवा. जो मेरा अपना है, उसका कोई नहीं ऐसा कैसे हो सकता है. मेरा अपना है, जर्मनी से, इंग्लैंड से, अमेरिका से, विदेशी आकर कोई उसकी सेवा करे, क्यों करे. मेरा अपना है तो मैं देखूंगा, अनाथ है क्या, दुनिया की दया पर पलेगा क्या, नहीं वह मेरी अपनी सेवा पर पलेगा, बढ़ा होगा. और सेवा से सक्षम हो गया तो सेवा मांगेगा नहीं, सेवा देने वाला बनेगा, ऐसी सेवा करें. शिव भावे जीव सेवा करो यह संदेश है, हम सबके लिये. सेवा के अनेक प्रकार हैं, अभाव को दूर करना, जो भी अभाव है, उसे दूर करना एक प्रकार है. दूसरा प्रकार है, अभाव को दूर करने की कला सिखाना. तीसरा है, अभाव दूर करने की कला को प्रचारित करना, जिससे किसी को सेवा की जरूरत नहीं रहेगी, सभी के अभाव दूर हो जाएंगे. चौथी सेवा है, ये मैं करूं. किसी के पास नहीं तो उसे उपलब्ध करवाऊं. स्वयंभाव से जागृत होना.
मेरा जीवन मेरे लिये नहीं है, मेरा जीवन मेरे अपनों के लिये है, और ऐसा आदमी बनाना यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है. चारों प्रकार की सेवाओं का एकत्रित दर्शन यहां मिल रहा है, जिनका अभाव है, उनका अभाव दूर करने का प्रयास, अभाव दूर होने के बाद उन लोगों के मन में आ रहा है कि हम भी इसी काम में लग जाएं, एक जगह केवल दो व्यक्ति सेवा नहीं कर रहे, धीरे धीरे इसका विस्तार कर रहे हैं, ताकि सब लोग इसको करने लगें. इसमें से हम भी शिक्षा ले रहे हैं कि यह करना चाहिये, मुझे भी करना चाहिये. शिव भावे सेवा वाले स्थान पर कार्यों का दर्शन हमने कर लिया तो समझो जीवन में पवित्रता आ गई, और यदि हम भी उसी काम में लग जाएंगे तो तीर्थ में डुबकी लगाकर तीर्थ रूप हो जाएंगे.
आप सब लोग प्रभु जी की सेवा में डुबकी लगाओ, सेवा करते करते आपका जीवन तीर्थ रूप बन जाए, यह शुभकामना देता हुआ, और आपको धन्यवाद देता हुआ यह मेरी श्रद्धांजली कार्य के प्रति अर्पित करता हूं और विराम देता हूं.