आजादी के दशकों बाद भी भारत में गुलामी की प्रथा अलग अलग रूप में जारी है. ईंटों की भट्ठियों से लेकर कपड़ा, माचिस और पटाखा उद्योग में बंधुआ मजदूरी होती है. प्रभाकर का कहना है कि इसके लिए प्रशासन से लेकर समाज जिम्मेदार हैं.यह बहुत बड़ी विडंबना है कि लगभग सात दशक पहले गुलामी की बेड़ियां तोड़ने वाले देश में अब तक सदियों पुरानी गुलामी प्रथा जस की तस कायम है. वैसे, अब इसका स्वरूप कुछ बदल गया है. देश के विभिन्न हिस्सों में जारी बंधुआ मजदूरी प्रथा दरअसल इस गुलामी प्रथा का ही आधुनिक स्वरूप है. तमाम कानूनों के बावजूद इस परपंरा पर अब तक अंकुश नहीं लग सका है. इक्कीसवीं सदी में जारी यह प्रथा समाज के माथे पर एक ऐसा बदनुमा धब्बा है जिसके लिए सरकार से लेकर सामाजिक ताना-बाना तक सभी जिम्मेदार हैं. खासकर महिला बंधुआ मजदूरों में ज्यादातर शारीरिक शोषण का शिकार होने पर मजबूर है. इनमें से कइयों को देर-सबेर देह व्यापार के धंधे में धकेल दिया जाता है. पिछले साल जारी ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स में भारत को बंधुआ मजदूरों की राजधानी करार दिया जाना इस कड़वी तस्वीर को साफ करता है. मोटे अनुमान के मुताबिक, इस समय देश में कोई डेढ़ करोड़ लोग बंधुआ मजदूर के तौर पर जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं.
आर्थिक विषमता
लेकिन आखिर अब भी सरकार और तमाम कानूनों को ठेंगा जताते हुए बंधुआ मजदूरी की प्रथा क्यों बदस्तूर जारी है? इस सवाल का जवाब देश की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति और समाज के अमीर व गरीब तबकों के बीच आर्थिक असमानता की लगातार बढ़ती खाई में छिपा है. ठेकेदार कई बार पूरे परिवार को अग्रिम रकम देकर अपने साथ बंधुआ मजदूरी के लिए सुदूर राज्यों में ले जाते हैं. पश्चिम बंगाल से भी भारी तादाद में ऐसे लोग हर साल उत्तर व दक्षिण भारत के राज्यों में जाते हैं. उत्तर भारत में ईंटों की भट्ठियों से लेकर दक्षिण भारत के कपड़ा, माचिस और पटाखा उद्योग में बंधुआ मजदूरी की प्रथा धड़ल्ले से जारी है. पश्चिम बंगाल में बीड़ी कारखानों और चाय बागानों में भी महिला मजदूरों की तादाद कम नहीं है. बावजूद इसके बंगाल में हालात दूसरे राज्यों के मुकाबले बेहतर हैं.
इसकी वजह यह है कि राज्य में कोई साढ़े तीन दशकों तक शासन करने वाले लेफ्टफ्रंट ने भूमि सुधारों के जरिए अमीरी-गरीबी की खाई को पाटने की दिशा में सराहनीय काम किया था. लेकिन दूसरे राज्यों में तस्वीर भयावह है. आमतौर पर समाज का दलित और पिछड़ा तबका ठेकेदारों से एकमुश्त रकम ले लेता है. उसके बाद उस कर्ज को चुकाने के लिए बंधुआ मजदूर बनना उसकी नियति बन जाती है. दहेज के प्रचलन ने भी इस प्रथा को बढ़ावा दिया है. इसके लिए युवती के घरवाले ठेकेदार से दहेज के लिए एकमुश्त रकम लेकर उसे बंधुआ मजदूर के तौर पर काम करने भेज देते हैं. लेकिन इस दलदल से मुक्ति मिलना तो दूर अक्सर ऐसी युवतियों का सफर किसी रेडलाइट इलाके में जाकर खत्म होता है. बंधुआ मजदूर के तौर पर काम करने के दौरान भी उनको मालिकों व ठेकेदारों के शोषण का शिकार होना पड़ता है.
कानूनों पर अमल नहीं
ऐसा नहीं है कि बंधुआ मजदूरी प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कानूनों की कमी है. वैसे तो संविधान की धारा 23 के तहत मिले मौलिक अधिकारों में साफ कहा गया है कि किसी भी नागरिक से बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती. उसके अलावा सरकार ने 1976 में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम भी पारित किया था. इसके तहत तीन साल के कैद और दो हजार रुपए के जुर्माने का प्रावधान है. इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी संबंधित जिलाधिकारियों पर है और निगरानी का काम केंद्रीय श्रम व रोजगार मंत्रालय के जिम्मे है.
लेकिन बावजूद इसके अगर यह प्रथा जस की तस है तो इसके लिए इन कानूनों के अमल में कोताही, सामाजिक जागरुकता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव जैसी वजहें जिम्मेदार है. अक्सर कभी उत्तर तो कभी दक्षिण भारत में बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने की खबरें मिलती हैं. लेकिन समुचित पुनर्वास के अभाव में कुछ दिनों बाद वही लोग दोबारा बंधुआ मजदूरी के दलदल में फंस जाते हैं. इसके अलावा दोषी लोगों के खिलाफ भी कोई कड़ी कार्रवाई नहीं होती. इसलिए उनके हौसले बढ़ते रहते हैं.
कैसे लगे अंकुश
आदिकाल से चली आ रही इस प्रथा को रातोंरात खत्म करना तो मुश्किल है. इस समस्या को दूर करने के लिए पहले इसकी जड़ों तक पहुंचना होगा. लेकिन वहां वही आर्थिक विषमता की खाई मुंह चिढ़ाती खड़ी नजर आती है. इस खाई को पाटने के लिए कोई जादूई छड़ी न तो सरकार के पास है और न ही राजनीतिक दलों के पास. दरअसल, इस प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए इलाके में स्वरोजगार के अवसर पैदा करना, मौजूदा कानूनों को कड़ाई से लागू करना और जरूरी हो तो उसमें और कड़े प्रावधान जोड़ना व गैरसरकारी संगठनों की सहायता से लोगों में जागरुकता फैलाना जरूरी है.
इसके साथ ही बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराए लोगों के रोजगार व पुनर्वास की समुचित व्यवस्था भी की जानी चाहिए ताकि यह लोग दोबारा किसी ठेकेदार के जाल में नहीं फंसे. खासकर गरीब घरों की युवतियों के मामले में तो यह और भी जरूरी है. बंधुआ मजदूर प्रथा उनको देर-सबेर देह व्यापार की ओर धकेलने की राह खोल देती है. सामूहिक प्रयास और आर्थिक-सामाजिक नजरिए से समस्या की गंभीरता को भांपते हुए इस पर अंकुश लगाने का प्रयास करने पर ही समाज के चेहरे पर लगे इस बदनुमा धब्बे को मिटाना संभव होगा.