भारत आज दुनिया के उन गिने चुने देशों में एक है, जहां लोग अभी भी पारंपरिक कपडे पहनते हैं| यह निश्चित रूप से भारतीय महिलाओं के सम्बन्ध में है, क्योंकि अधिकतर भारतीय पुरुष काफी लम्बे समय से पश्चिमी शैली के कपडे पहन रहे हैं| भारतीय महिलाएं आज भी साड़ी में उतनी ही समकालिक दिखती हैं, जितना सदियों पहले दिखती थीं| प्रश्न आज यह है कि कब तक वह ऐसा करने में सक्षम रहेंगी?
आजकल पश्चिमी ब्रैंडों की दिल्ली की दुकानों के 80% हिस्से में पुरुषों की पोशाकें टंगी होती हैं| मुम्बई में यह अनुपात बिलकुल ही अलग है| यहाँ की सड़कों पर साड़ी पहनी महिलाओं की संख्या प्रतिवर्ष घटती जा रही है| बॉलीवुड़ की सुंदरियां आजकल डियोर, शनेल और बरबेरी जैसे डिजाइनरों की पोशाक में पार्टियों और समारोहों में आना अधिक पसंद करती हैं|
धीरे धीरे भारतीय श्रृंगार की वस्तुएं अपना परम्परागत अर्थ गंवाती जा रही हैं| पैर की उंगली में पहनी जाने वाली अंगूठी यानी बिछिया के पवित्र महत्व का वर्णन वेदों में भी किया गया है| प्राचीन काल में यह माना जाता था कि बिछिया पहनने से महिलाओं को महिला स्वास्थ्य, प्रजनन क्षमता तथा बच्चे के पोषण के लिए अनुकूल चक्रीय ऊर्जा के संरक्षण में मदद मिलती है|
पैरों की उँगलियों में अंगूठी पहनने के विचार से अमरीकी डिज़ाइनर मर्जोरी बोरेल पहली बार प्रेरित हुईं थीं| 1973 में भारत से अमरीका लौटने पर उन्होंनें वहां पर पैरों की उँगलियों के लिए अंगूठी बनाने का काम शुरू किया और यह अंगूठियाँ यानी बिछिये वहां बहुत जल्दी ही अत्यंत लोकप्रिय हो गए|
आजकल बिंदी, बिछिया और कलाइयों में चूड़ियाँ भारत और पश्चिमी देशों में श्रृंगार का एक साधन मात्र बन कर रह गए हैं, न कि विवाहित महिला के अभिन्न अंग| समकालिक दिखने और विश्व फैशन की होड़ में भारतीय महिलाएं धीरे धीरे अपनी पहचान खोती जा रही हैं| आज भारतीय नारियां गाड़ी चलाती है, कैफे और रेस्तरानों में खाना खाती हैं तथा पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आत्मविश्वास के साथ कैरियर की सीढ़ी चढ़ती है| जीवन की इस रफ़्तार में जींस पहनना साड़ी की प्लेट डालने से कहीं अधिक तर्क संगत लगता है| महिलाओं द्वारा लिखे ब्लॉगों में अक्सर यह पढने को मिलता है कि पुरुषों के साथ कदम मिलाकर चलते समय उनके पास सिन्दूर लगाने और अन्य श्रृंगार के लिए समय नहीं रह जाता है, वह नाराजगी से यह पूछती हैं कि क्यों अभी तक उनसे मांग में सिन्दूर भरने की आशा की जाती है? दुनिया के दूसरे देशों की महिलाएं लम्बे समय से ऐसा कुछ नहीं करती हैं| इन महिलाओं से सहमत हुए बगैर भी नहीं रहा जा सकता है| रूस, यूरोप और कई पूर्वी देशों की महिलाएं भूमंडलीकरण की प्रक्रिया द्वारा लाई गईं आधुनिक प्रौद्योगिकियों और सहूलियतों को अपना चुकी हैं| दुःख सिर्फ यह है कि भूमंडलीकरण की यह प्रक्रिया उनसे उनकी विशिष्टता छीनती जा रही है|
हालांकि भूमंडलीकरण की सहूलियतों को अपनाने का अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि अपनी राष्ट्रीय पहचान को खो दिया जाए| कई देशों में राष्ट्रीय पहचान, विशिष्टता और परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों तथा राष्ट्रीय भाषा के संरक्षण और विकास के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय आन्दोलन चलाए जा रहे हैं| भारत इस अर्थ में कोई अपवाद नहीं है|
भारतीय महिलाएं जब सुविधाजनक हो जींस पहन सकती हैं, लेकिन पारंपरिक साड़ी में वह निश्चित रूप से अधिक स्त्रीरूप और आकर्षक दिखती हैं|