आशीष वशिष्ठ
नई दिल्ली, 8 सितंबर – हर साल की भांति इस वर्ष भी पूर्वोत्तर से कश्मीर तक बाढ़ अपना रौद्र रूप दिखा रही है। उत्तर भारत के राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार का बड़ा हिस्सा बाढ़ के पानी में डूबा है। अक्सर जब बाढ़ आती है, तभी हम जागते हैं और इसे प्राकृतिक आपदा मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं, जबकि अब बाढ़ हर साल आती है और बड़ा नुकसान करती है। वैश्विक एजेंसियों का आकलन है कि हमारा देश प्राकृतिक आपदाओं के मामले में संवेदनशील जोन में आता है। इंटरनेशनल फंडरेशन ऑफ रेडक्रॉस एंड रेड क्रिसेंट सोसाइटीज द्वारा 2010 में प्रकाशित विश्व आपदा रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 से 2009 के बीच आपदाओं से प्रभावित होने वाले लोगों में 85 फीसदी एशिया प्रशांत क्षेत्र के थे।
माना जाता है कि बांध से बाढ़ को रोका जा सकता है। जहां बांध सालाना बाढ़ को अक्सर रोक सकते हैं, वहीं बांध से अचानक पानी छोड़ने की वजह से कई इलाकों में बाढ़ आई है। अमेरिका में 1960 से 1985 के बीच सरकार ने चार हजार करोड़ रुपये खर्च किए बांध के कारण आने वाली बाढ़ को रोकने में। भारत में बांध बनाने की परंपरा सदियों पुरानी है और पिछले 50 वर्षों में ही देश के विभिन्न राज्यों में 3,000 से ज्यादा बड़े बांधों का निर्माण हुआ है।
हाल ही में भारतीय संसद में सरकार ने माना था कि देश के कुल 5,000 बांधों में से 670 ऐसे इलाके में जो भूकंप संभावित जोन की उच्चतम श्रेणी में आते हैं। अनुभव बताते हैं कि बाढ़ को रोक पाने में बड़े बांध न केवल असफल हुए हैं, बल्कि इससे आपदा में वृद्धि ही हुई है।
बाढ़ की एक वजह है अधिक वर्षा। लेकिन बांध भी बाढ़ लाते हैं। जिन बांधों का एक फायदा कभी बाढ़ नियंत्रण गिनाया जाता था, अब वही बाढ़ के कारण बनते जा रहे हैं। मध्य प्रदेश का ही उदाहरण लें, तो नर्मदा पर कई बांध बन गए हैं। बरगी बांध, इंदिरा सागर बांध और ओंकारेश्वर बांध से पानी छोड़ने और उसके बैकवाटर के कारण नर्मदा में मिलने वाली नदियों का पानी आगे न जाने के कारण गांवों या खेतों में घुस जाता है। बांधों से बाढ़ नियंत्रण तभी संभव है, जब बांधों को खाली रखा जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता।
सितंबर 2010 में टिहरी बांध के बैराज खोलने से हुए नुकसान की यादें आज भी ताजा हैं। यदि भविष्य में कभी टिहरी बांध का बैराज टूटा तो ऋषिकेश, हरिद्वार सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा पानी में डूबा होगा। आज हिमालय क्षेत्र में बांध और जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण कार्य के लिए जो जानकारियां अनिवार्य हैं, वही हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि आने वाले समय में कितने और किस तीव्रता की बाढ़ आएगी और बांध की दीवारें इन्हें झेल पाने में कितनी सक्षम होंगी। दिसंबर 2008 में छपी रपट ‘माउंटेंस ऑफ कंक्रीट’ गंभीर होती स्थितियों की ओर इशारा करती है।
पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पाएंगे कि बारिश बेशक कम हुई, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया। सूखे के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।
विदित हो कि आजादी से पहले अंग्रेज सरकार ने बाढ़ नियंत्रण में बड़े बांध या तटबंधों को तकनीकी दृष्टि से उचित नहीं माना था। तत्कालीन गवर्नर हेल्ट की अध्यक्षता में पटना में हुए एक सम्मेलन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद सहित कई विद्वानों ने बाढ़ के विकल्प के रूप में तटबंधों की उपयोगिता को नकारा था। इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी-बड़ी नदी को बांधने का काम जारी है। कैग की रिपोर्ट बताती है कि उत्तराखंड में 42 परियोजनाएं चल रही हैं और 203 निर्माण और स्वीकृति के स्तर पर हैं।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा समय में उपयोग किए जाने वाले 100 से ज्यादा बांध 100 वर्ष से भी पुराने हैं। मोरबी बांध के ढह जाने बाद भी हम सचेत नहीं हुए हैं। बांध पर बांध बने जा रहे हैं बिना ये सोचे कि अगर ऊपर का एक बांध टूट गया तो नीचे किस तरह की प्रलय आ जाएगी। साल 1979 में गुजरात का मोरबी बांध भारी बारिश और बाढ़ से प्रभावित होकर टूट गया था जिससे, सरकारी आंकड़ों के अनुसार, कम से कम 5,000 लोगों की मौत हुई थी। इसके अलावा छह साल पहले भारत-नेपाल सीमा पर कोसी नदी पर बना बांध टूट गया था। इस वजह से हजारों लोगों को बेघर होना पड़ा था।
कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार ने एक प्रस्ताव रखा था जिसमें देश के सभी बांधों के निरीक्षण और मरम्मत की बात कही गई थी। यह प्रस्तावित कानून अभी तक संसद से पारित नहीं हुआ है। राजग सरकार में पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि हर बांध की पूरी सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी और उसी हिसाब से उनकी समीक्षा की जाएगी।
पूर्वोत्तर राज्य असम में नदियों पर बनाए गए अधिकांश तटबंध और बांध 60 के दशक में बनाए गए थे। इसलिए अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं। केंद्र सरकार के रिकॉर्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देश के सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में से एक है। फिर भी इस इलाके को बाढ़ से बचाने के लिए देश में कोई कारगर योजना नहीं है। बगैर सोचे समझे नदी-नालों को बांधने के कुप्रभावों का उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली ‘केन’ है।
बुंदेलखंड को बाढ़ से सुरक्षित माना जाता रहा है, लेकिन गत डेढ़ दशक से केन भी अप्रत्याशित ढंग से उफन कर पन्ना, छतरपुर और बांदा जिले में जबरदस्त नुकसान कर रही है। केन के अचानक रौद्र होने का कारण छोटे-बड़े बांध हैं। केन और उसके सहायक नालों पर हर साल सैकड़ों ‘स्टाप-डेम’ बनाए जा रहे हैं, जो इतने घटिया हैं कि थोड़े से पानी के जमा होने पर टूट जाते हैं। केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘स्टाप-डेमों’ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है। केन की राह में स्थित ‘ओवर-एज’ बांधों में भी टूट-फूट होती रहती है। लोगों का मानना है कि जब से इंदिरा सागर बांध बना है, तब से मध्य प्रदेश के इस इलाके में बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।
कुछ साल पहले ओडिशा में आई भयानक बाढ़ का कारण भी हीराकुंड बांध से पानी छोड़ा जाना बताया गया था। देश में ऐसे कई छोटे-छोटे बांध हैं, जिनसे समय-असमय पानी छोड़ा जाता है, जिसके चलते उन इलाकों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक तथ्य यह भी है कि नदियों के जलस्तर बढ़ने या कम होने संबंधी सूचनाएं केंद्रीय जल आयोग द्वारा आपदा प्रबंधन तंत्र को पहुंचानी होती है, लेकिन कैग के अनुसार देश के 4728 बांधों में से सिर्फ 28 की सूचनाएं जल आयोग जारी कर रहा है। आपदा प्रबंधन विभाग, मौसम विभाग और केंद्रीय जल आयोग के बीच सामंजस्य और तालमेल का नितांत अभाव हमारी सरकारों की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाता है।
वर्तमान परिस्थितियों में बाढ़ महज प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य त्रासदी भी है। इस पर अंकुश लगाने के लिए गंभीरता से सोचना होगा। कुछ लोग नदियों को जोड़ना इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के ऊंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां निष्पक्ष अध्ययन किया ही नहीं गया है और इसी का फायदा उठा कर स्वार्थी लोग इस तरह की सलाह देते हैं।
पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों के खनन पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ रोकना ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो बाढ़ की विभीषिका का मुंहतोड़ जवाब हो सकते हैं।
नदियों के जल-भराव, भंडारण और पानी को रोकने और सहेजने के परंपरागत ढांचों को फिर से खड़ा कर भी बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। पर्यावरणविद नदियों पर बनाए जा रहे बांधों के विरोधी हैं, तकनोलॉजी को अभिशाप मानते हैं और ‘बैक टू नेचर’ का नारा देते हैं, लेकिन तकनोलॉजी अपने आप में अभिशाप नहीं होती। यह इस पर निर्भर करता है कि इसका इस्तेमाल किस लिए किया जा रहा है। एक मुनाफा केंद्रित व्यवस्था में बड़े बांध अभिशाप हो सकते हैं। लेकिन एक मानव केंद्रित व्यवस्था में यह वरदान भी साबित हो सकते हैं।