ईश्वर ने मनुष्य को मन, बुद्धि और आत्मा विशेष रूप से प्रदत्त की है। इन्हीं के माध्यम से वह विवेकशील होकर समाज से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ सकता है। ईश्वर ने मानव को स्थूल शरीर व इंद्रियों के अलावा एक ऐसा स्वरूप प्रदान किया है कि वह सभी के साथ संतुलन स्थापित करके जी सके। तभी वह अपने जीवन को सफल बना सकता है। मानव चरित्र को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम तो ईश्वर प्रदत्त चारित्रिक गुण-दोष हैं। उन्हीं चारित्रिक गुणों का विकास वंशानुक्त्रम के आधार पर होता है। दूसरे भाग में माता-पिता, भाई व बहनों के आचरण भी बालक के चरित्र को प्रभावित करते हैं। तीसरे भाग में चरित्र को अधिक प्रभावित करने में विद्यालय का वातावरण, अध्यापक व छात्रों के साथ-साथ बालक का पड़ोस, सामाजिक रहन-सहन, व्यवहार व वातावरण भी एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। तीसरे भाग के चरित्र को अर्जित चरित्र की संज्ञा दी जा सकती है। वर्तमान समय में विश्व में बढ़ते हुए अनैतिक क्त्रियाकलापों का मूल कारण चरित्र निर्माण की इन तीनों संस्थाओं द्वारा प्रदत्त उद्देश्यविहीन शिक्षा है।
माता-पिता, शिक्षकों और समाज के वरिष्ठ व प्रबुद्ध लोगों और संतों को मानव के चरित्र के गिरते स्तर पर विचार करना चाहिए। वयस्क व उम्रदराज लोगों को उच्च चारित्रिक मानकों का प्रेरणादायक वातावरण बनाने के लिए अपने व्यवहार व आचरण के माध्यम से शिशुओं, किशोरों व युवकों को प्रभावित करना चाहिए। यदि हम सभी अपने-अपने आचरण को सुधार कर सच्चरित्र बनें और हमारे उस आचरण का अनुकरण बालक करें, तो अपने आप अपराधों का अंत हो सकता है। बच्चों को ईश्वर भक्ति की प्रेरणा से ओतप्रोत आध्यात्मिक शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए। आज की चकाचौंध में मनुष्य धन-संपत्ति व भोगों के प्रति अति आसक्त हो रहा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि सच्ची शिक्षा वह है जो मानव के शरीर, मन व आत्मा का सर्वागीण विकास कर चरित्रवान बना सके।