होली प्रेम का पर्व है। दार्शनिकों ने कहा है कि जहां अहंकार होता है, वहां प्रेम नहीं उपजता। इसीलिए होली के एक दिन पूर्व होलिका दहन किया जाता है, ताकि हम अपने-अपने अहंकार अग्नि को समर्पित कर दें। तभी हम जन-जन को प्रेम बांट सकते हैं।
होली महापर्व का श्रीगणेश होलिका-दहन के साथ होता है। प्राचीनकाल में माघी पूर्णिमा के दिन से होलिका-दहन की तैयारी दाण्डारोपण के साथ शुरू हो जाती थी। कालांतर में होलिका-दहन से आठ दिन पूर्व प्रारंभ होने वाले होलाष्टक इस आयोजन को समर्पित कर दिए गए।
होलिका दहन की पृष्ठभूमि में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। दैत्यराज हिरण्यकशिपु ब्रšाजी से वरदान पाकर अहंकार में इतना चूर हो गया कि उसने अपने राज्य में भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना पर प्रतिबंध लगाकर स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। लेकिन हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रच्चद श्रीहरि का अनन्य भक्त था। वह सदैव भगवान विष्णु की उपासना में तल्लीन रहता। इससे कुपित होकर हिरण्यकशिपु ने प्रच्चद को कई बार प्राणांतक दंड दिए। उन्हें पहाड़ की चोटी से गिराया गया, हाथी के पैरों तले कुचलवाने का प्रयास किया गया, विष-पान कराया गया पर हिरण्यकशिपु के सभी प्रयास असफलहो गए।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के पास एक दिव्य उत्तरीय (दुशाला) था, जिस पर अग्नि का असर नहीं होता था। इसलिए होलिका को अहंकार हो गया था कि उसने अग्निदेव को जीत लिया है। अपने अहंकार की तुष्टि के लिए होलिका दुशाला ओढ़कर नित्य अग्नि-स्नान करती। अपने भाई हिरण्यकशिपु को प्रच्चद को दंडित करने में विफल देखकर होलिका ने यह उपाय सुझाया कि वह प्रच्चद को लेकर चिता में बैठ जाएगी। दुशाले के प्रभाव से वह तो बच जाएगी पर प्रच्चद जलकर भस्म हो जाएगा। हिरण्यकशिपु ने इसकी स्वीकृति दे दी। लेकिन अपने अहंकार के वशीभूत होकर हिरण्यकशिपु और होलिका यह भूल गए कि जिसकी रक्षा भगवान कर रहे हों, उसका कोई कुछ भी अहित नहीं कर सकता। जब होलिका प्रच्चद को लेकर चिता पर बैठी, तो उसमें आग लगाते समय ऐसी तेज हवा चली कि अग्निरोधक दुशाला होलिका से उड़कर प्रच्चद पर आ गिरा। इससे होलिका जल गई, किंतु प्रच्चद सुरक्षित बच गया।
होलिका अपने अहंकार के कारण मृत्यु के मुख में पहुंच गई। हिरण्यकशिपु ने इस घटना से सबक नहीं लिया। तभी तो होलिका-दहन के 59वें दिन हिरण्यकशिपु भी अपने अहंकार की बलि चढ़ गया। वैशाख-शुक्ल-चतुर्दशी को सायं भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लेकर उसका वध कर दिया।
भले ही यह एक पौराणिक कथा हो, लेकिन इसका संदेश प्रसारित करने के लिए होली के रंगोत्सव से पूर्व होलिका-दहन की प्रथा बनाई गई। ताकि हमें यह शिक्षा मिल सके कि अहंकार विनाश का कारण बनता है। अहंकारी जीवन भर अहं की अग्नि में जलता रहता है तथा बाद में उसी में वह स्वाहा भी हो जाता है। होली वस्तुत: प्रेम का त्योहार है। लोग वैर और घृणा त्यागकर सबको गले लगाते हैं। पर यह तभी संभव है जब होलिका की अग्नि में अपने अहंकार को नष्ट कर दें। अहंकार-रूपी विष के समाप्त होते ही हृदय प्रेमामृत से भर जाता है। होली वसंत ऋतु का आनंदोत्सव है। इस आनंद की उत्पत्ति अहंकार-रहित निर्मल मन में ही हो सकती है। अहंकार से मलिन मन प्रेम के लिए उपयुक्तनहीं होता। होलिका-दहन के समय भद्रा का विचार किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार, सर्पिणी-रूपिणी भद्रा के मुख में विष होने के कारण उसे विषाक्त मानकर समस्त शुभ कार्यो में इसका निषेध किया गया है। इस वर्ष मंगलवार 26 मार्च को सायं 4.25 बजे पूर्णिमा तिथि लगने के साथ ही मांगलिक कार्यो में वर्जित भद्रा भी प्रारंभ हो जाएगी, जो देर रात 3.41 बजे तक प्रभावी रहेगी। अतएव मंगलवार 26/27 मार्च को फाल्गुनी पूर्णिमा की रात्रि के अंतिम प्रहर में देर रात 3.41 बजे के उपरांत, किंतु आगामी सूर्योदय से पूर्व भद्रा से मुक्त निर्मल पूर्णिमा में कभी भी होलिका-दहन किया जा सकता है। जहां लोग रात भर प्रतीक्षा करने में असमर्थ हों, वहां होलिका-दहन सर्पिणी भद्रा के विषविहीन पुच्छकाल में मंगलवार को रात्रि 11.43 से 12.51 बजे के मध्य भी हो सकता है।
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