अपने पारंपरिक ज्ञान को बचाने के लिए भारत नए सिरे से कमर कस रहा है। उसका इरादा इस मकसद से बनाई गई टे्रडिशनल डिजिटल नॉलेज लाइब्रेरी (टीकेडीएल) तक एक्सेस कई और देशों को मुहैया कराने का है। इसके साथ ही वह इस लाइब्रेरी में आयुर्वेद, यूनानी और सिद्ध के करीब एक लाख नए फॉर्म्युलेशन को शामिल करने की तैयारी कर रहा है। इसमें अभी इनके करीब पौने तीन लाख फॉर्म्युलेशन शामिल हैं।
बडे़ काम का टीकेडीएल
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान संस्थान (सीएसआईआर) की इकाई टीकेडीएल की स्थापना भारत के परंपरागत ज्ञान को बचाने के लिए की गई थी। नब्बे के दशक में अमेरिका की एक कंपनी ने हल्दी पर अपना दावा ठोंक दिया था। इसे बचाने में भारत को पांच साल लग गए और अमेरिकी वकीलों को फीस के रूप में करीब 12 लाख डॉलर का भुगतान करना पड़ा। 1995 में अमेरिका की ही एक फर्म ने नीम पर अपना दावा जता दिया। भारत को इसके अमेरिकी पेेटेंट को रद्द कराने में 10 साल लग गए। इस पूरी मशक्कत पर 10 लाख अमेरिकी डॉलर खर्च हो गए। इन सब घटनाओं से सबक लेते हुए 2001 में सीएसआईआर ने आयुष विभाग की मदद से टीकेडीएल की स्थापना की। अपनी स्थापना के बाद से टीकेडीएल अब तक पुदीना, कमल, ब्राह्मी, अश्वगंधा, चाय की पत्ती, अदरक और दर्जनों भारतीय पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों पर विदेशियों के कब्जे को रोकने में कामयाब रही है।
होगी काफी सहूलियत
दुनिया के किसी भी पेटेंट ऑफिस में कोई भी आवेदन दाखिल होने पर इसका पता ऑनलाइन चल जाता है। अगर इसमें भारत के परंपरागत ज्ञान का प्रयोग हो रहा हो तो टीकेडीएल तुरंत एक्शन लेती है। संबंधित पेटेंट ऑफिस को टीकेडीएल में मौजूद दस्तावेजों की मदद से बता दिया जाता है कि भारत में फलां वनस्पति या पदार्थ से इस तरह के उत्पाद हजारों सालों से बनाए जा रहे हैं। अभी टीकेडीएल का एक्सेस अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, जापान, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया को ही दिया गया है। सूत्रों का कहना है कि अब सरकार न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका और अन्य कई देशों को इसका एक्सेस देने पर विचार कर रही है। इन देशों के पेटेेंट ऑफिस की इस लाइब्रेरी तक पहुंच होने पर पेटेंट के लिए किसी भी फॉर्म्युलेशन का आवेदन आने पर अधिकारियों को इसका पता चल जाएगा कि यह भारत में पहले से इस्तेमाल हो रहा है या नहीं। इसके आधार पर वे पेटेंट को मंजूरी देने या न देने का फैसला कर सकते हैं।
अब तक बचाए 250 करोड़
टीकेडीएल की स्थापना से न सिर्फ भारत के पारंपरिक ज्ञान को बचाने में कामयाबी मिली है , बल्कि इसने देश के करीब 250 करोड़ रुपये भी बचाए हैं। इसके मुकाबले 2001 में टीकेडीएल की स्थापना के बाद से इस पर अब तक महज 15 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। टीकेडीएल के लिए एक विशेष सॉफ्टवेयर बनाया गया है। इसकी मदद से संस्कृत , अरबी , फारसी , उर्दू और तमिल की प्राचीन पांडुलिपियों का पलक झपकते ही अंग्रेजी , फ्रेंच , चीनी , जापानी , स्पैनिश और जर्मन में अनुवाद हो जाता है। इसका फायदा यह है कि इन देशों में अगर कोई भारत के परंपरागत नुस्खों को चुराकर पेटेंट कराने की कोशिश कर रहा हो तो वह पकड़ में आ जाता है।