पुरी की रथयात्रा में मंदिर से जगन्नाथ, बलभद्र और बहन सुभद्रा के विग्रहों की तीन विशाल रथों पर सवारी निकलती है जिनको श्रद्धालुओं के हजारों हजार हाथ खींच कर वहां से तीन किमी दूर रानी गुंडिचा के मंदिर तक पहुंचाते हैं। सात दिनों तक वहां विश्राम के उपरांत महाप्रभु की सवारी श्रीमंदिर लौटती है। इस मौके पर हर आम व्यक्ति इन विग्रहों के सहज रूप से दर्शन कर सकता है।
पुरी के जगन्नाथ धाम को नीलांचल धाम, श्रीक्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र, शंख क्षेत्र आदि से भी जाना जाता है। अनुश्रुति है कि सतयुग में अवंती नगरी के राजा इंद्रद्युम्न विष्णु के परम भक्त थे। वे अपने राज्य में विष्णु का विशाल मंदिर बनाना चाहते थे जहां वे विष्णु के नए रूप को प्रतिष्ठापित करना चाहते थे। उनको पता चलता है कि नीलगिरी के घने वनों में आदिवासी शवर विष्णु के नीलमाधव विग्रह की पूजा करते हैं इसलिए राजा नीलमाधव की मूर्ति का पता लगाने दरबारियों को रवाना करते हैं। काफी ढूंढने पर उनको विफलता हाथ लगती है। इस पर राजा दरबार से विद्यापति नामक पंडित को रवाना करते हैं। नीलगिरी के वनों में उनको शवर नरेश विश्वावसु की पुत्री ललिता मिलती है जिससे वे प्रेम करने लगते है ताकि वे उससे विवाह कर उसका विश्वास जीत कर नीलमाधव के विग्रह का पता लगा सकें। एक दिन विद्यापति नीलमाधव के विग्रह का पता लगा लेते हैं। पता चलते ही विद्यापति लौटकर राजा को जानकारी देते हैं। इस पर राजा इंद्रद्युम्न सेना के साथ नीलगिरी की पहाड़ियों से नीलमाधव का विग्रह लाने को निकल पड़ते हैं। किन्तु वहां नीलगिरी की पहाड़ियों में स्थित उस मंदिर में नीलमाधव का विग्रह नहीं मिलता है। इस बीच राजा को देववाणी सुनाई देती है कि वे सागर के तट पर बांकी नदी के मुहाने पर मौजूद काष्ठ से विग्रह निर्माण कराकर मंदिर में स्थापित करें। इंद्रद्युम्न सागर तट पर नियत स्थान से काष्ठ को लाते हैं लेकिन विग्रह निर्माण के लिए कोई भी सक्षम कारीगर नहीं मिलता है। विग्रह कैसे तैयार हों, वे गहन चिता में घिर जाते हैं। एक दिन स्वयं विश्वकर्मा वृद्ध शिल्पी का वेश धर राजा के पास आते हैं और अपनी शर्त पर विग्रहों को तैयार करने को राजी हो जाते है। शर्त के अनुसार राजा इसके निर्माण की गोपनीयता बनाए रखेंगे और निर्माण के 21 दिन तक कोई भी व्यक्ति वहां झांकने का प्रयास नहीं करेगा।
विग्रह निर्माण प्रारंभ होता है लेकिन रानी गुंडिचा अपनी उत्सुकता पर नियंत्रण नहीं रख पाती हैं और 15वें दिन छुपकर वहां जाती है। ऐसा करते ही वृद्ध शिल्पी अंतध्र्यान हो जाता है और वहां जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा के तीन अपूर्ण विग्रह मिलते हैं। रानी गुंडिचा और राजा को इस गलती पर पछतावा होता है और वे प्रभु से क्षमा याचना करते हैं। इस पर विष्णुभक्त इंद्रद्युम्न को एक बार फिर से देववाणी सुनाई देती है कि वे चिंता किए बगैर इन अधूरे विग्रहों को ही मंदिर में स्थापित करें। इसके बाद राजा प्रसन्नचित्त होकर एक भव्य मंदिर बनवाते हैं और सालों तक प्रजापति ब्रšा की तपस्या के बाद वे इनकी प्राण प्रतिष्ठा करते हैं।
मंदिर स्थापना
यद्यपि अनुश्रुति में वर्णित मंदिर का आज कहीं अस्तित्व नहीं मिलता है लेकिन जो मंदिर आज जगन्नाथ धाम से ख्यात है उसका निर्माण कार्य 12वीं सदी में गंग साम्राज्य के शक्तिशाली नरेश अनंतवर्मन के द्वारा आरंभ करवाया गया था। वह पुरुषोत्तम क्षेत्र यानि पुरी में ऐसा मंदिर बनवाना चाहते थे जो न केवल भव्य हो बल्कि दीर्घकालिक भी हो। यह मंदिर सन 1147 में बनना आरंभ हुआ और 1178 में अनंतवर्मन के पौत्र अनंग भीमवर्मन के काल में पूरा हुआ। मंदिर की विशालता के कारण उनके राज्य का सारा राजस्व इसके निर्माण पर लगता रहा।
जगन्नाथ मंदिर परिसर लगभग 10 एकड़ भूमि पर फैला है जो एक ऊंचे चबूतरे पर बना है। यह चारों ओर से सात मीटर ऊंची दीवार से घिरा है। मंदिर में चारों ओर चार प्रवेश द्वार हैं किन्तु सिंह द्वार ही मुख्य प्रवेश द्वार है। इसके भीतर प्रवेश करने पर मुख्य मंदिर तक जाने को सीढि़यां हैं। मुख्य मंदिर ओडिया शैली में बना है जिसमें चार भाग विमान, जगमोहन, नाट्यशाला व भोगमंडप हैं। मुख्य मंदिर के अतिरिक्त इस परिसर में विमला देवी, नृसिंह, गणेश, सूर्य देव सहित तीन दर्जन बड़े-छोटे मंदिर निहित हैं जो अलग-अलग काल में निर्मित हुए बताये जाते है। श्रीमंदिर की ऊंचाई 56 मीटर है जिस पर पत्थरों पर नक्काशी कर लगाया गया है। मंदिर को देख उस दौर की उन्नत शिल्पकला की कल्पना की जा सकती है। मंदिर में सिंह द्वार के समक्ष अरुण स्तंभ है जो कोणार्क से लाकर यहां पर स्थापित किया गया। मुख्य मंदिर में आज जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा के काष्ठ निर्मित विग्रहों के दर्शन होते है जो हर 12 साल बाद नवकलेवर उत्सव के समय बदल दिए जाते है। मंदिर में पूरे ही साल भर विधिविधान के अनुसार अनेकानेक उत्सव होते रहते हैं जिनमें रथ यात्रा सबसे प्रमुख है।
पुरी में जगन्नाथ की रथयात्रा की परंपरा कैसे आरंभ हुई इसका कोई सही-सही उत्तर नहीं मिलता है। मान्यता है कि जब कृष्ण वृंदावन में थे तो उनके मामा कंस ने उनकी हत्या की कई योजना बनाईं। उन्होंने मथुरा से अक्रूर नामक दैत्य को रथ सहित भेजा। लेकिन बालक कृष्ण उसके इरादे को भांप गए और उन्होंने अपना वास्तविक रूप धर अक्रूर का वध किया। रथयात्रा को उसी प्रसंग से जोड़ कर देख जाता है। पुरी में जगन्नाथ मंदिर से यह भव्य यात्रा सदियों से निकल रही है।
रथ निर्माण व परंपराएं
चूंकि हर साल इन रथों को नए सिरे से बनाया जाता है इसलिए सबसे पहले दारु व दूसरे उन पेड़ों की पहचान की जाती है जिसने रथ के विभिन्न हिस्सों को बनाया जाता है। किस रथ में कितने वृक्षों की आवश्यकता होगी, कितनी लकड़ी किसमें लगेगी उनका आकार व संख्या सब निर्धारित रहता है।
रथयात्रा उत्सव के कई चरण होते हैं। रथ निर्माण का कार्य अक्षय तृतीया के दिन प्रारंभ होता है जो 58 दिनों तक चलता है। इसको परंपरागत कारीगर ही बनाते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे करते चले आए हैं। इसके लिये 45, 44 व 43 फीट ऊंचे तीन रथ तैयार किए जाते हैं। जगन्नाथ का रथ नंदी घोष 16 पहियों का, बलभद्र जी का रथ तालध्वज 14 और सुभद्रा का रथ देवदलन 12 पहियों का बनाया जाता है। रथों को सजाने के लिए लगभग 1090 मीटर कपड़ा लगता है। रथों को लाल वस्त्रों के अलावा जगन्नाथ के रथ को पीत वस्त्रों से, बलभद्र जी के रथ को नील वस्त्रों से और सुभद्रा के रथ को काले वस्त्रों से मढ़ा जाता है। प्रत्येक रथ के अलग रथपालक होते हैं। इसके अलावा उनमें द्वारपाल व सारथी होते हैं। रथों पर आरूढ़ करने के लिए लकड़ी से ही अन्य देवों की मूर्तियां भी तैयार की जाती हैं। किस देव की मूर्ति किस रथ में होगी यह पहले से ही तय रहता है। रथों को खींचने के लिए नारियल के चार-चार मोटे रस्से लगे होते है। इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इसी तरह से रथों पर लगने वाले ध्वजों के भी अलग-अलग नाम होते हैं।
रथों के निर्माण के साथ-साथ इस यात्रा की दूसरी प्रथाएं निभाई जाती रहती हैं। इनमें च्येष्ठ पूर्णिमा को स्नान यात्रा होती है जिसके तहत तीनों विग्रहों को 108 घंटे जल से स्नान कराया जाता है। इसे देखने मंदिर में भारी भीड़ जुटती है। स्नान के बाद देवता अस्वस्थ हो जाते हैं और 15 दिनों के अनासर पर रहते हैं। इस अवधि में उनके दर्शन नहीं होते हैं। विजय अमावस के दिन विग्रह नवयौवन प्राप्त करते हैं और दर्शन के लिए उपलब्ध होते हैं।
रथ यात्रा की शुरुआत में एक के बाद एक पुष्पों से मंडित तीनों विग्रहों को रथ पर लाया जाता है। इसके बाद पुरी के गजपति महाराज या उनके प्रतिनिधि रथों को सोने की झाड़ू से साफ करते हैं और चंदन छिड़कते हैं। इसके बाद ही यह यात्रा आरंभ होती है। सबसे पहले बलभद्र का रथ, उनके बाद सुभद्रा का रथ और अंत में जगन्नाथ का रथ निकलता है। इन रथों के आगे भजन व कीर्तन करते भक्तों की टोलियां चलती हैं। अपरान्ह तक रथ गुंडिचा मंदिर पहुंचते हैं। अगले दिन उन विग्रहों को मंदिर में स्थापित किया जाता है जहां अगले सात दिनों तक उनकी पूजा अर्चना होती है। बाहुडा यात्रा के समय कुछ देर के लिए यात्रा मौसी मां मंदिर के समक्ष रुकती है और शाम को तीनों रथ वापिस श्रीमंदिर के समक्ष पहुंचते है जहां तीनों विग्रहों को स्वर्णवेश से सच्जित किया जाता हैं और अगले दिन यानि आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को तीनों विग्रहों को श्रीमंदिर में पूरे विधि विधान के साथ प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। यात्रा की समाप्ति के बाद इन रथों को भंग कर दिया जाता हैं जिनकी लकड़ी मंदिर की विशाल रसोई में प्रयोग होती है।
रथयात्रा के समय कभी चिलचिलाती धूप रहती है तो कभी वर्षा। गर्मी व वर्षा के बावजूद भक्तजनों के उत्साह में कोई कमी नहीं रहती है। यात्रा के समय श्रीमंदिर से गुंडिचा मंदिर तक जाने वाले मार्ग पर तिल धरने को जगह नहीं मिलती है। इस यात्रा में भाग लेने भारत के हर हिस्से से लोग तो आते ही हैं, विदेशों से भी बड़ी संख्या में पर्यटक व श्रद्धालु पहुंचते हैं। यह रथ यात्रा पुरी के अलावा केरल के गुरुवायूर कृष्ण मंदिर व द्वारकाधीश में भी निकलती है। लेकिन आज कई अन्य शहरों में भी प्रतीकात्मक तौर पर निकलने लगी है।
क्या देखें
पुरी में रथयात्रा में भाग लेने के साथ आप यहां के मंदिरों व सरोवरों को देख सकते है, यहां सागर तट पर स्नान का आनंद ले सकते है। ओडिशा अपने हस्तशिल्प, पटचित्र व एप्लीक कला के लिए प्रसिद्ध है। 14 किमी दूर रघुराजपुर में पटचित्रों को व 40 किमी दूर भुवनेश्वर मार्ग पर पीपली में एप्लिक शिल्प को बनते भी देख सकते है। पुरी से 30 किमी दूर कोणार्क में विख्यात सूर्य मंदिर है। रास्ते में चंद्रभागा तट हैं। पुरी से 65 किमी दूर ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर है जहां पर कई दर्शनीय मंदिर है जिनमें लिंगराज सबसे भव्य है। खण्डागिरी व उदयगिरी में जैन गुफाएं है जबकि धौली की पहाड़ी पर शांति स्तूप है। सफेद बाघों के लिए प्रसिद्ध नंदन कानन चिड़ियाघर भी देख सकते हैं।
कैसे व कहां
पुरी में ठहरने को यूं तो अनेक मठ, मंदिर व धर्मशालाएं हैं लेकिन यहां पर बड़ी संख्या में होटल, रिजॉर्ट, गेस्ट हाउस, लाज भी है। यात्रा के समय यहां तिल धरने को स्थान नहीं होता है। ऐसे में भुवनेश्वर व कटक दूसरे विकल्प है। निकटतम हवाई अड्डा 65 किमी दूर भुवनेश्वर में है। यात्रा के लिए आने-जाने व रुकने का इंतजाम पहले कर लें तो अच्छा होगा। राजधानी होने से भुवनेश्वर में हर प्रकार की सुविधाएं हैं। देश के कोने-कोने से पुरी व भुवनेश्वर तक अनेक सीधी ट्रेनें चलती हैं। इस दौरान रेलवे विशेष रेलगाडियां भी चलाता है। चेन्नई-कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग भी यहां से गुजरता है।