नई दिल्ली, 30 अगस्त (आईएएनएस)। देश पाकिस्तान के साथ सन 65 के युद्ध की स्वर्ण जयंती मना रहा है। आज इस युद्ध के 50 साल बीतने के बाद भी पूर्व सैनिकों को इस बात का मलाल है कि पाकिस्तान से जीते गए इलाकों को उसे वापस कर दिया गया। उनकी नाराजगी छिपाए नहीं छिपती जब वे कहते हैं कि आखिर जीती हुई जमीन पाकिस्तान को क्यों वापस कर दी गई।
पूर्व सैनिक 1965 की जंग में बहादुरी और अकल्पनीय साहस की शानदार गाथाओं को याद करते हैं, सुनाते भी हैं। देश के राजनैतिक नेतृत्व से उनकी कुछ अपेक्षाएं रही हैं जो शायद पूरी नहीं हुईं। इन्हीं में से एक वन रैंक वन पेंशन है जिसके लिए वे लड़ रहे हैं और एक यह भी है कि पाकिस्तान से छीन ली गई जमीन आखिर उसे वापस करने की जरूरत क्या थी।
भारतीय वायुसेना के अवकाश प्राप्त विंग कमांडर के.एस.परिहार भी ऐसे ही एक पूर्व सैनिक हैं। वह तब 21 साल के थे जब युद्ध पूरी तरह से छिड़ चुका था। वह प्रशिक्षित पारा कमांडो भी थे। उनका काम दुश्मन के इलाकों के पास विमान से जवानों को पहुंचाना भी था।
परिहार ने आईएएनएस से कहा, “पाकिस्तान को लगा था कि लाल बहादुर शास्त्री जैसा विनम्र और सामान्य सा दिखने वाला इनसान उसके खिलाफ खड़ा नहीं हो सकेगा..(पाकिस्तानी राष्ट्रपति) फील्ड मार्शल अयूब खान छह फीट लंबे थे। उनके पास अमेरिका से मिले तमाम तरह के अत्याधुनिक हथियार थे। लेकिन वे यह भूल गए कि भारतीय फौजी अपनी मातृभूमि से प्यार की खातिर लड़ता है। ”
उन्होंने कहा, “हमारे सैनिकों ने अपना खून बहा दिया..और जितनी जमीन हमने जीती, सभी पाकिस्तान को लौटा दी गई। हमें इस बारे में सोचकर गुस्सा महसूस होता है।”
अवकाश प्राप्त कर्नल वी.एस.ओबराय ने 1965 के साथ साथ 1962 और 1971 की जंगों में भी हिस्सा लिया था। वह उस फौजी दस्ते का हिस्सा थे जिसने सियालकोट को रावलपिंडी से जोड़ने वाले रेलवे स्टेशन अल्हार पर कब्जा कर लिया था।
ओबराय बताते हैं, “हम सीमा पार कर उनके इलाके में घुस गए थे। लगातार 16 दिन हम उधर ही रहे। इस बीच युद्धविराम का ऐलान हो गया। तब तक हम अल्हार रेलवे स्टेशन पर कब्जा कर चुके थे। इससे सियालकोट और रावलपिंडी का संपर्क कट गया था। लेकिन यह सारा इलाका पाकिस्तान को वापस कर दिया गया। हमें आज भी इस पर गुस्सा आता है। ”
ओबराय ने अफसोस जताते हुए कहा, “यहां तक कि हमने उन्हें (रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण) हाजी पीर दर्रा (जो जम्मू से श्रीनगर की दूरी 200 किलोमीटर घटा देता है) भी वापस कर दिया।”
युद्ध का स्वर्ण जयंती समारोह 28 अगस्त से शुरू हुआ है। 28 अगस्त ही वह तारीख है जब हाजी पीर पर भारत का कब्जा हुआ था।
ताशकंद समझौते में हाजी पीर को वापस करने के फैसले को विशेषज्ञों का एक धड़ा भारत की एक बड़ी चूक मानता है।
ऐसी ही सच्ची कहानी अवकाश प्राप्त लांसनायक सदानंद सुनाते हैं। वह सेना की उस टुकड़ी का हिस्सा थे जिसने सतलुज नदी पर बने एक पुल को उड़ा दिया था।
सदानंद बताते हैं, “पुल सतलुज पर बना था और पाकिस्तान के नियंत्रण में था। हमें इसे उड़ाने की जिम्मेदारी दी गई थी ताकि पाकिस्तानी हमारी तरफ न आ सकें। ”
पुल तक सदानंद करीब डेढ़-दो किलोमीटर तक कुहनियों के बल पर घिसट कर पहुंचे थे। उनकी पीठ पर विस्फोटक लदा हुआ था। बीच बीच में दुश्मन की गोलियां आस पास से गुजर रही थीं।
वह बताते हैं, “पुल के नीचे रेल की पटरी थी। हम रस्सी के सहारे पुल पर पहुंचे। उस पर विस्फोटक रखा…और उड़ा दिया। लेकिन जब जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटा दी गई तो मेरे अंदर का फौजी बहुत आहत हुआ।”
सन 65 की जंग 17 दिन चली थी। भारत ने इसमें अपने 3000 सपूत खोए थे।
भारत के कब्जे में पाकिस्तान का 1,920 वर्ग किलोमीटर इलाका आया था। पाकिस्तान ने भारत के 560 वर्ग किलोमीटर इलाके पर कब्जा किया था।
10 जनवरी 1966 को तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद में जंग बंदी का समझौता हुआ। इसमें तय हुआ कि दोनों देशों की सेनाएं जीते हुए इलाकों को लौटा कर युद्ध से पहले वाली जगहों पर लौट जाएं।
पूर्व सैनिक यह कहने से नहीं चूकते कि फिलहाल तो उनकी ‘जंग’ वन रैंक वन पेंशन के लिए है। उनका कहना है कि युद्ध के स्वर्ण जयंती समारोह में वे तभी शिरकत करेंगे जब उनकी मांग मान ली जाएगी।