पाकिस्तान में अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर रिटायर्ड जज मीर हजर खान खोसो की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार का असर एक सप्ताह में ही दिखने लगा है. बुधवार को पाकिस्तान में मतदाताओं को वो अधिकार बैठे बिठाये मिल गया जिसके लिए भारत में आंदोलन किए जा रहे हैं. राईट टू रिजेक्ट यानी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार. भारत में राईट टू रिजेक्ट, एक अंतहीन बहस का मुद्दा बनता नजर आ रहा है जबकि पाकिस्तान में यह हकीकत बनने वाला है. पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने इस अधिकार को हरी झंडी दिखाते हुए इसे अध्यादेश की शक्ल में लागू करने के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दिया है.
दूसरी ओर भारत में सिवाए सियासी जमात के हर तबका राईट टू रिजेक्ट की वकालत कर रहा है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने बीते साल दिसंबर में अपने पद पर रहते हुए ही राईट टू रिजेक्ट को चुनाव सुधार के लिए बेहद जरूरी बताया और कहा कि सरकार के लिए इसे लागू करना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है. लेकिन मौजूदा हालात में जनता की इस जायज मांग का माना जाना मुमकिन नहीं दिखता है. लोकतंत्र के मामले में भारत से काफी पीछे चल रहे पाकिस्तान ने कम से कम चुनाव सुधार की दिशा में कारगर पहल कर भारत को आईना तो दिखा ही दिया है. ऐसे में भारत के लिए पाकिस्तान में राईट टू रिजेक्ट के असर को परखने का सुनहरा मौका है. यह बात सही है कि पाकिस्तान में राईट टू रिजेक्ट लागू होने से सब कुछ दुरुस्त नहीं हो जायेगा लेकिन यह पहल, हताश निराश जनता के लिए उम्मीद की किरण जरूर दिखाती है. भारत के हर राज्य और समाज के हर तबके में सर्वसम्मति से यह बात उभर कर सामने आई कि जनता विकल्पहीनता का शिकार है. इसीलिए पढ़े लिखे यानी मध्यम वर्गीय तबके का मतदान के प्रति खास रुझान नहीं रहा. चुनाव में 50 और 60 फीसदी के बीच झूलता मतदान का स्तर बताता है कि देश की आधी आबादी के लिए वोटिंग का दिन सिर्फ छुट्टी का दिन होता है.
हो भी क्यों नहीं, चुनावी दंगल में दो दो हाथ करने को उतरे नेता, वोटिंग से तौबा कर चुके लोगों के लिए, कहीं से भी खुद से जुड़े नहीं दिखते. वोट मांगने वाले और वोट देने वालों के सरोकारों की लगातार चौड़ी होती खाई, लोकतंत्र की गहरी होती जड़ों में मट्ठा डालने जैसा काम कर रही है. हालांकि चुनाव सुधार की पुरजोर होती मांग के बीच ही शिक्षित पेशेवर युवाओं का सियासत में आना बेहतर भविष्य का संकेत भी दे रहा है. राजस्थान में सरपंच छवि राजावत और अरविंद केजरीवाल इसके उदाहरण कहे जा सकते हैं.