पत्रकारों का लाइसेंसीकरण करने की योजना बनाई जा रही है,राजनेताओं,अधिकारी वर्ग जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं उनके द्वारा यह योजना तैयार की जा रही है।
लाइसेंस राज मतलब सत्ता का नियंत्रण कर सत्ता को अनियंत्रित करना,सत्ता का अनियंत्रित होना मतलब समाज और देश का नुकसान होना,लेकिन नेता और अधिकारी लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को पूरी तरह नियंत्रित करने के चक्कर में पड़े हैं ताकि वे अपनी मनमानी कर सकें।
केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने कह दिया है कि पत्रकारों को भी लायसेंस दिया जाना चाहिये और इसके लिये डाक्टर-इंजीनियर की तरह परीक्षा भी आयोजित होना चाहिये. इसके पहले प्रेस कांऊसिल के अध्यक्ष ने तो पत्रकारों की शैक्षिक योग्यता तय करने के लिये एक कमेटी का गठन तक कर दिया है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई हर दल और हर नेता देता रहा है लेकिन जब जब उनके हितों पर चोट पहुंची है तो सबसे पहले नकेल डालने की कोशिश की गई. पश्चिम बंगाल में ममता बेनर्जी ने जो कुछ किया या कश्मीर और असम में जो कुछ हुआ, वह सब अभिव्यक्ति की आजादी में खलल डालने का उपक्रम है.
एफ डी आई के चैनलों या “मीडिया” ने जो पैसे कमाने के उद्देश्य से आये हैं भारत में उन्हें नियंत्रित करना आसान है कैसे अरे भाई उन्हें धन ही तो देना है जिस उद्देश्य से वे आये हैं वही उन्हें उपलब्ध करवा दिया वे चुप हो जायेंगे,उन्हें कोई मतलब नहीं देश से देशवासियों से उन्हें तो बस लूटना है इस देश को,देश के पत्रकार लिखेंगे तो देश हित सर्वोपरी रहेगा अतः ये भाई तो सत्ता के लोगों के दुश्मन ही कहलायेंगे।
लाइसेंसी पत्रकार सत्ता और उसके सहयोगियों के खिलाफ लिखने की हिम्मत नहीं करेगा यदि किया भी तो लाइसेंस निरस्त कर दिया जाएगा यह ऐसा तो अंग्रेज करते थे क्योंकि उनकी राजनैतिक मजबूरी थी समाचार जन-जन तक न पहुँचने देने की,मीडिया संस्थानों को नियंत्रित कर अपने पक्ष में खबर दिखाने या चलवाने को कहा और किया भी जा सकता है।
आजकल इन संस्थानों में सम्पादक नहीं हैं वह जगह प्रबंधकों /मालिकों ने ले ली है,पत्रकार यदि नेताजी से कोई प्रश्न करता है तो नेताजी सीधे मालिक के बारे में पूछते हैं,और उस मालिक से बात कर खबर रुकवा देते हैं।
इस दिशा में बड़ा अवरोध विदेशी संस्थान या विदेशी पूँजी लगे संस्थान हैं,जो प्रबंधकों से संचालित होते हैं संपादकों से नहीं देश हित में यह संकेत ठीक नहीं है,आजादी के बाद यह स्थिति अपने ही ले आयेंगे यह सोचा नहीं था किसी ने,पत्रकार वार्ताओं में हमने कई नेताओं को उन पत्रकारों से जो तीखे प्रश्न पूछते हैं उनके संस्थान का या मालिक का नाम पूछते देखा है यह सब क्या है,क्या यह उस भयावह स्थिति को प्रदर्शित नहीं करता जब लोकतंत्र के तोते की गर्दन ये लोभी और स्वार्थी तत्व अपने हाथों में रखना चाहेंगे।
अनिल सिंह (भोपाल)