अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत-यात्रा शुरू होने से दस दिन पहले यह घोषणा की गई है। नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ यह मुक़दमा पिछले साल सितम्बर में ’अमरीकी न्याय केन्द्र’ नामक एक मानवाधिकार संगठन ने दायर किया था। इस संगठन का कहना था कि वर्ष 2002 में गुजरात के मुख्यमन्त्री के रूप में उन्होंने साम्प्रदायिक दंगे और मुस्लिम नरसंहार को रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी।
किसी विदेशी राजनेता के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर करना अपनी छवि सुधारने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं होता है। किसी भी देश के प्रधानमन्त्री को विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं और उन्हें किसी भी तरह से अमरीकी अदालत में नहीं घसीटा जा सकता है। और अब बराक ओबामा की भारत-यात्रा से पूर्व अदालत द्वारा लिया गया यह निर्णय नरेन्द्र मोदी की ख़ुशामद करने के अलावा और कुछ नहीं है। लेकिन यह ख़ुशामद भी अजीब लग रही है क्योंकि अमरीकी सरकार ने लम्बे समय तक नरेन्द्र मोदी को अमरीका का वीजा न देकर पहले ही उनको बड़ी सज़ा दे दी है। हमें हँसी आ रही है क्योंकि सवाल यह उठता है कि क्या बराक ओबामा की भारत-यात्रा से दस दिन पहले अमरीकी अदालत इस निर्णय के अलावा भी कोई और निर्णय ले सकती थी?
दूसरी तरफ़ एमनेस्टी इण्टरनेशनल की अमरीकी शाखा की प्रमुख मार्गरेट हुआंग ने बराक ओबामा से यह अपील की है कि वे नरेन्द्र मोदी के साथ 1984 में भोपाल में घटे ज़हरीली गैस काण्ड के शिकारों को सहायता की समस्या पर विचार-विमर्श करें। उनका कहना है कि दोनों नेताओं को भोपाल गैस काण्ड के शिकारों को सहायता देने के बारे में सँयुक्त रूप से घोषणा करनी चाहिए और उस दुर्घटना के दोषियों की ज़िम्मेदारी तय करने के लिए उन पर मुक़दमा चलाना चाहिए। चाहे तीस साल बाद ही उन्हें सज़ा मिले, लेकिन सज़ा तो मिलनी ही चाहिए। देर आए, दुरुस्त आए।
विश्लेषकों का अनुमान है कि नई दिल्ली की इस मुलाक़ात में बराक ओबामा यह कोशिश करेंगे कि चीन को रोकने की अमरीकी नीतियों में भारत भी शामिल हो जाए। लेकिन रूस के विदेश मन्त्रालय की कूटनीतिक अकादमी के पूर्व अध्ययन केन्द्र के प्रमुख आन्द्रेय वलोदिन का मानना है कि बराक ओबामा और उनके सलाहकारों ने नरेन्द्र मोदी को कच्चा खिलाड़ी समझ रखा है, जबकि वे इतने पक्के खिलाड़ी हैं कि वे ख़ुद दूसरे देशों के साथ रिश्तों में अमरीका का इस्तेमाल तुरुप के पत्ते की तरह कर रहे हैं। रूस में भारत के पूर्व राजदूत कँवल सिब्बल द्वारा हाल ही में कही गई बात को दोहराते हुए आन्द्रेय वलोदिन ने कहा :
कँवल सिब्बल का कहना है — हम भारत के लोगों को दुनिया में अमरीका की कमज़ोर हो रही स्थिति का इस्तेमाल अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए करना चाहिए। मेरा ख़याल है कि कँवल सिब्बल की यह बात भारत के सत्तारूढ़ नेताओं के विचारों को ही व्यक्त करती है। यह ठीक है कि बराक ओबामा चीन के सिलसिले में भारत का इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे। लेकिन चीन भी आँखें मूँद कर तो बैठा नहीं है। चीन ने भारत में भारी पूँजी निवेश करने का प्रस्ताव रखा है। और यह प्रस्ताव सितम्बर 2014 में चीन के राष्ट्राध्यक्ष शी चिन फिंग की भारत-यात्रा के दौरान रखा गया था। हालाँकि चीन के लिए 20 अरब डॉलर कुछ भी नहीं है, लेकिन यह चीन-भारत रिश्तों की शुरूआत के लिए एक बड़ी रक़म है। इसके अलावा यह भी माना जा रहा है कि भारत और चीन के नेताओं के बीच गहरी आपसी समझ पैदा हो चुकी है। इस गहरी आपसी समझ की वजह से ही नरेन्द्र मोदी को चीन पर पूरा-पूरा विश्वास है और वे बराक ओबामा की चीन-विरोधी चाल को नाकाम कर देंगे।
आन्द्रेय वलोदिन ने अपनी इस बात के पक्ष में एक और तर्क पेश किया कि नरेन्द्र मोदी अपने तुरुप के पत्ते से बराक ओबामा के बड़े से बड़े पत्ते को पीट देंगे। आन्द्रेय वलोदिन ने कहा :
गणतन्त्र दिवस परेड के समय मुख्य बराक ओबामा को अतिथि के तौर पर बुलाकर भारत ने उन्हें आदर दिया है। लेकिन नरेन्द्र मोदी इस बात को भी अच्छी तरह समझते हैं कि अमरीका में बराक ओबामा की स्थिति बहुत कमज़ोर हो गई है, ख़ासकर वहाँ संसद के लिए हुए चुनावों के बाद। गणतन्त्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि बनाने का प्रस्ताव भारत ने अमरीकी संसद के लिए हुए चुनावों के बाद ही रखा था। इसलिए भारत-अमरीका-चीन त्रिकोण के बीच आपसी सम्बन्ध बड़े जटिल हैं और अमरीका इन जटिल रिश्तों का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है। भारत के सत्तारूढ़ क्षेत्र इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं कि इस त्रिकोण में भारत को दोनों ही देशों से बराबर की दूरी बनाकर रखनी है। इसलिए सम्भव है कि अमरीका चीन और भारत के रिश्तों में कोई खूँटा गाड़ने की कोशिश करे, लेकिन भारत के हाथों चीन को रोकने की कोशिश एक मिथ्या भ्रान्ति के अलावा और कुछ नहीं है।
रेडिओ रूस से