धर्मपथ-धर्म एक आत्मिक शांति और एक निजी अनुभव की स्थिति है लेकिन इसे सत्ता में तब्दील कर रत्नजड़ित सिंहासनों की भव्यताओं और संतों की किलेनुमा अमीरी में धकेल दिया गया. आज की कारोबारी दुनिया में स्वयंभू गुरुओं के पास अकूत जमीन, पैसा और दबंगई आ गई है. रामपाल इंजीनियर बताए जाते हैं, फिर संत बन गए. संपत्ति, ताकत, ऐश्वर्य और दबदबा सब जमा किया. अपना कल्ट ही बना लिया. आज वो कानून की खुलेआम अवहेलना करने की स्थिति में आ गये तो ये हौसला उनमें यूं ही नहीं आ गया होगा. इसमें हम सत्ता-राजनीति और सरकार की कमजोर कड़ियों को भी देख सकते हैं.
ऐसे देश में जहां आधा से ज्यादा आबादी विपन्न है, उनके पास अपनी व्यथाएं और यातनाएं हैं और वे आर्थिक चमकीलेपन की भूलभुलैया में अपने लिए कोई सुरक्षित रास्ता, इन मुश्किलों से निजात की कोई दवा ढूंढते फिरते हैं. ऐसे ही विचलित, बेचैन और सताए लोगों का शिकार करती है धर्म और अध्यात्म की ये दुकानें और इनके ठेकेदार. वे लोगों को शांति और मुक्ति के नाम पर एक अंधी गली में धकेल देते हैं. दो शताब्दी पहले मार्क्स ने कहा था, धर्म जनता की अफीम है. ये “अफीम” कितनी नई, परिष्कृत और भूमंडलीय हो चुकी है.
धर्म और राजनीति के घालमेल का खेल नया नहीं है. राजनीतिज्ञों और धर्मगुरुओं की दोस्ती के ऐतिहासिक किस्से और घटनाएं रही हैं. शंकराचार्यों को लेकर राजनैतिक खींचतान भी सब जानते हैं. यौन उत्पीड़न समेत संगीन आपराधिक मामलों में कई धर्मगुरुओं और महंतों की गिरफ्तारियां भी हुई हैं. धर्म, अध्यात्म और महंती के बड़े ठिकानों में से एक हरिद्वार में, संतों का ऐश्वर्य देखकर आप दांतो तले अंगुली दबा लेंगे.
कितना दुखद है कि ये आखिर क्या वही चीज है जिसकी तलाश में तड़पते हुए बुद्ध अपना महल और परिवार छोड़कर निकल गए थे. हैरानी होती है कि ये वही देश है जहां भक्ति और सूफी संतों कवियों की एक महान परंपरा रही है जिनके लिए ये दुनिया एक वीरानी से ज्यादा कुछ नहीं थी. लेकिन आज देखिए, धर्म तो अगर कॉरपोरेट की किसी कसौटी पर परखें, तो सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाले उद्योगों में इसे दर्ज होना चाहिए.
देर नहीं हुई है, समांतर सत्ताएं किसी लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है. खासकर ये सत्ता अगर धर्म की हो. सरकारों को इस पर सोचना ही होगा. कला, संगीत, लेखन और पत्रकारिता में जरा इधर की उधर किसी को चुभ जाए तो वितंडा खड़ा कर दिया जाता है और रचनाकार को अदालतों में घसीटा जाने लगता है. धर्म का धंधा करने वाले भोले लोगों की भावनाओं से जो खिलवाड़ करते आ रहे हैं उस पर सरकारों की चुप्पी टूटनी चाहिए. आस्था और अधिकारों के नाम पर हम समाज में कई अंधेरे कोने पनपने नहीं दे सकते. ये देश की और समाज की रौनक को निगलेंगे.