देहरादून। माने न जसोदा तेरो गिरधारी माने न और कब आएंगे श्याम बृजवासी, आप न आए न लिख भेजी पाती इन गीतों के साथ बैठक सजती है होली के होल्यारों की। यह महफिल कुमाऊं में नहीं, बल्कि दून में सजती है और आज से नहीं गत सौ सालों से। देहरादून शहर के साथ ही शमशेरगढ़ क्षेत्र में आज भी होली की ऐसी बैठकें होती हैं, जिसमें बच्चे, युवा और बुजुर्ग शामिल होते हैं और गाते हैं माने न जसोदा तेरो गिरधारी माने न।
दरअसल, देहरादून में बैठकी होली का इतिहास लगभग सौ साल पुराना है। यह परंपरा आज भी दून के कई क्षेत्रों में जिंदा है। फालतू लाइन होली समिति सौ साल पुरानी है। बाद के दिनों में उर्मिल थपलियाल, केशव अनुरागी, जीत जड़धारी, जीत सिंह नेगी, नानू काका, जगत बहादुर, घन्नी, आनंद ढौंडियाल ने शहर में होली की बैठकों को जिंदा रखा। शहर से दूर शमशेरगढ़-बालावाला में बैठकी होली की परंपरा जिंदा है। बुजुर्ग मनोहर लाल बताते हैं कि 1940 में जब वह बच्चे थे तब से होली की बैठकों में जाया करते थे। युवा होने पर उन्होंने बैठक की कमान संभाली। आज सुरेश पांडे, क्षितिज उपाध्याय, प्रवीण उपाध्याय, संजीव रावत, अरविंद जोशी, सरदार कर्म सिंह, अखिलेश भंडारी आदि होली की बैठकों की कमान संभाले हुए हैं। शमशेरगढ़ की बैठकी होली की विशेष पहचान है ठप। कृष्ण पर आधारित विभिन्न गीत जब होल्यार गाते हैं तो ठप की थाप उन्हें ऊंचाई प्रदान करती है। होल्यारों की टोली गांव में निकलती है तो थाली में गुलाल के साथ ही गुड की भेली रहती है। जो बाद में प्रसाद के रूप में गांव में बांटी जाती है। इसके साथ ही बापूग्राम ऋषिकेश में रामानंद शर्मा और दमयंती शर्मा बैठकी होली को जिंदा रखे हुए हैं।