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 तनावग्रस्त था गांधी का पूरा जीवन | dharmpath.com

Monday , 25 November 2024

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तनावग्रस्त था गांधी का पूरा जीवन

तनाव को लेकर एक और तनाव। जीवन में अनेक समस्याएं हैं। समस्याएं पीड़ित करती हैं। लोग तनाव में आते हैं लेकिन भारत के लोग तनाव को लेकर प्राय: चिकित्सकों के पास नहीं जाते। दुनिया के तमाम देशों में मनोविश्लेषकों के पास लम्बी कतारे हैं। संपन्न लोग निजी मनोचिकित्सक भी रखते हैं लेकिन भारत में मनोविश्लेषकों के पास भीड़ नहीं है।

तनाव को लेकर एक और तनाव। जीवन में अनेक समस्याएं हैं। समस्याएं पीड़ित करती हैं। लोग तनाव में आते हैं लेकिन भारत के लोग तनाव को लेकर प्राय: चिकित्सकों के पास नहीं जाते। दुनिया के तमाम देशों में मनोविश्लेषकों के पास लम्बी कतारे हैं। संपन्न लोग निजी मनोचिकित्सक भी रखते हैं लेकिन भारत में मनोविश्लेषकों के पास भीड़ नहीं है।

मनोविश्लेषक हैरान हैं। इसलिए इस पेशे के समर्थक भारत को पिछड़ा बताते हैं। मनोविश्लेषक तनाव को रोग बताते हैं। वे तमाम प्रश्न पूछते हैं परामर्श देते हैं। इसे ‘काउंसिलिंग’ कहा जाता है, लेकिन तनाव का समाधान प्राय: नहीं होता। मैं अपना उदाहरण दूं। राजनैतिक कार्यकर्ता हूं। मंच पर जगह चाहिए, माल्यार्पण चाहिए और आगे-पीछे माइक भी।

मंच, माला, माइक राजनैतिक कार्यकर्ता के आभूषण हैं। वे नहीं मिलते तो तनाव होता है। मनोविश्लेषक मेरे जैसे यशलोलुप को क्या परामर्श देंगे? ज्यादा से ज्यादा सुझाव देंगे कि ऐसा हर सभा में जरूरी नहीं। कहेंगे कि परिस्थिति को यथातथ्य समझना आवश्यक है। वैसे राजनीति तनाव का क्षेत्र है ही। यहां प्रतिपल तनाव हैं। मेरे एक मित्र वरिष्ठ राजनेता अक्सर तनाव में रहते हैं।

अखबार में उनका नाम पहले पेज पर नहीं आता। तनाव सब तरफ है। क्रिकेट के खेल में मनपसंद टीम नहीं जीती तो भी तनाव, लेकिन तनाव बीमारी नहीं है। यह जीवन ²ष्टि का ही उपहार है।

दर्शन की अनेक धाराएं हैं, लेकिन जीवन सक्रियता के ढंग सिर्फ दो। हम अस्तित्व के अंग हैं। अस्तित्व का हरेक अंग, अणु और परमाणु गतिशील है। इसी गति में हम सब भी गतिशील हैं। अस्तित्व के साथ गतिशील होना विराट प्रवाह का आनंद पाना है। नदी बह रही हैं। हम बहाव के विपरीत तैर रहे हैं। संघर्ष स्वाभाविक है।

संघर्ष का ताप अंदर तक होना ही तनाव है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। हम नदी के प्रवाह में स्वयं को छोड़ सकते हैं। अब नदी की इच्छा ही हमारी इच्छा। वह जहां चाहे, वहां ले जाए। काहे का संघर्ष? तनाव का कोई प्रश्न ही नहीं। अस्तित्व विराट। नदी जैसा।

हम अस्तित्व के अंग हैं। अस्तित्व नाद के ही प्रवाह। उपनिषद् के ऋषि बता गए हैं- इकाई होना दुख है। अनंत होना आनंद। बूंद होना पीड़ा है, नदी या सागर होना परमबोध और आनंद। अनंत होने की अनुभूति का मार्ग सीधा है। यहां कोई बौद्धिकता नहीं। अस्तित्व का जस तस स्वीकार। अस्तित्व ही निर्णायक है।

हम कौन होते हैं, निर्णय लेने वाले? यही आस्तिकता है। आस्तिकता किसी अज्ञात ईश्वर के प्रति विश्वास नहीं है। अस्तित्व प्रत्यक्ष है। जड़ के हरेक अणु से चेतना झांक रहा है। पेड़ से, शाख से, पत्ती और फूल से चेतना ही चेतन की गूंज है। हरेक प्राणी, धूल का कण या कीट पतिंग अस्तित्व का ही चेहरा है। सबका स्वीकार। सबके प्रति नमन। लेकिन ऐसा आसान नहीं।

अनुभूति और दर्शन की बातें दीगर हैं, लेकिन स्वयं को अस्तित्व के साथ एकात्म जानना आत्मबोध से ही संभव है। एकाकीपन डराता है। हम अज्ञात भविष्य के प्रति भयभीत होते हैं। तब हम वर्तमान में नहीं होते।

हम भविष्य की कल्पित आशंकाएं वर्तमान में ले आते हैं। तनाव भविष्य की छाया है। शंकालु भविष्य वर्तमान में घुस आए तो तनाव। मनोविज्ञान पर ढेर सारी किताबें हैं। वे जटिल हैं।

प्रतिष्ठित मनोविज्ञानी डॉ. कृष्णदत्त ने ‘जीवन मनोविज्ञान’ नाम से एक सुंदर पुस्तक लिखी है। ‘तनाव’ वाले अध्याय में लिखते हैं ‘तनाव की उत्पत्ति भविष्यगत कारणों से होती है। यह काल्पनिक स्थिति है।’ खेल मन का है। प्रभाव तन पर भी पड़ता है। मन तनावग्रस्त तो तन भी। मन और तन दो अलग सत्ता नहीं हैं। सूक्ष्म मन का स्थूल भाग तन है या स्थूल तन का अतिसूक्ष्म भाग मन।

स्वयं को एकाकी जानना ही गलत है। लेकिन तनाव निंदनीय नहीं है। दुनिया के सारे महान दार्शनिक और वैज्ञानिक तनाव में रहे। उनमें प्रकृति की गतिशीलता को समझने का तनाव था। जान पड़ता है कि सविता सूर्य भी उगने और अस्त हो जाने का कर्तव्य पालन पूरा करने के लिए तनावग्रस्त रहे होंगे।

इसी तनाव ने उन्हें नियमबद्ध आचरण दिया। नदियां तनाव मंे ही समुद्र की ओर भागती हैं तेज रफ्तार। इसी तनाव में उन्होंने अपनी गति को लयबद्ध बनाया। तनाव हडबड़ी है। नियमबद्धता आश्वस्ति है। प्रकृति में नियमबद्धता है। हममें नहीं है। प्रकृति हड़बड़ी में नहीं है, हम हड़बड़ी में हैं।

वैदिक पूर्वजों में हड़बड़ी नहीं थी। काहे की जल्दबाजी? वे 100 बरस जीना चाहते थे, जानते थे कि बार-बार किसी न किसी रूप में संभवन होता है। अनंत इच्छाएं हैं तो समय भी अनंत है। कोई शीघ्रता नहीं। इसी आश्वस्ति भाव में उन्होंने काव्य और मंत्र रचे।

वैज्ञानिकों ने प्रकृति रहस्यों पर काम किया। बहुत कुछ खोजा बहुत कुछ शेष भी है। खोजने की तत्परता एक तरह का तनाव ही थी। ज्ञान की प्यास भी तनाव है। एक रोमांचक सुंदर तनाव। लेकिन यह एकाकी नहीं बनाती। यह जोड़ती है प्रकृति से, प्रकृति के अंतरंग और बहिरंग से और समूचे अस्तित्व से भी।

तनाव का मूल है स्वयं को अस्तित्व से पृथक मानना। हमारा मन करता है कि वर्षा हमारे अनुकूल हो, आंधी हमारी इच्छा से आए। नदियां हमारे अनुसार बहें। कोयल हमारी इच्छानुसार गाये। हमारी वार्ता के समय कुत्ते न भौंके। कुत्ते दिनभर भूखे रहते मारे-मारे फिरते हैं, लेकिन तनावग्रस्त नहीं होते। वे अपने भूंकने में रेल, मोटर की आवाज को बाधा नहीं मानते।

हम दूसरों से आगे निकल जाना चाहते हैं। तनाव प्रतिस्पर्धी मन का ही मित्र है। प्रशान्त मन में तनाव नहीं होता। हम प्रशंसा चाहते हैं। सिद्धि के बिना ही प्रसिद्धि चाहते हैं। प्रसिद्धि को अस्तित्व का निर्णय नहीं मानते। हम जीतना चाहते हैं। ऐसे प्रयास में हार का उपहार हरेक समय उपस्थित रहता है।

नीत्से ने ठीक कहा था कि ‘मुझे कोई नहीं हरा सकता क्योंकि मैं किसी से भी लड़ने को तैयार नहीं।’ हम अस्तित्व से अलग स्वयं का निजी अस्तित्व मानते हैं। निजी अस्तित्व वस्तुत: होता ही नहीं। अस्तित्व एक है। सिर्फ एक। दूसरा है ही नहीं। यहां अद्वैत है। वैयक्तिक होना विषाद है और स्वयं को समष्टि का भाग जान लेना प्रसाद। प्रसाद मधुमय है और विषाद विष।

तनाव भी अस्तित्व का ही भाग है। जीवन में तनाव का उपयोग है। अतिरिक्त ऊर्जा है इस मनोदशा में। गांधी तनाव में थे, डॉ. अंबेडकर और डॉ. हेडगेवार भी। डॉ. लोहिया का तनाव भी गजब का था। लेकिन उनमें भारतीय अनुभूति की आश्वस्ति भी थी। निराशा नहीं, आश्वस्ति ही।

लिखा था कि ‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं।’ यहां पांच साल की प्रतीक्षा न करने का तनाव है। फिर लिखा थ कि ‘लोग मेरी बात सुनेंगे लेकिन हमारे मरने के बाद।’

डॉ. हेडगेवार परमवैभवशाली भारत के लिए तनावग्रस्त थे। लेकिन लबालब आश्वस्ति भी थी। उन्होंने मराठी में ‘याचि देही, याचि डोला’ कहकर अपने जीवनकाल में ही स्वराष्ट्र का परमवैभव देखने का संकल्प व्यक्त किया था। संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर का अंतिम भाषण तनावपूर्ण है, लेकिन उसमें राष्ट्रनिर्माण के सूत्र भी हैं। गांधी का पूरा जीवन तनावग्रस्त था। स्वाधीनता संग्राम के समय और उसके बाद में भी। तनाव प्रतिपल का मित्र है।

प्रतिदिन हजारों तनाव आते हैं। अनेक मुद्दे पीड़ादायी और डरावने आते रहते हैं, लेकिन अनेक सुखद और खूबसूरत भी होते हैं। मनोविश्लेषक खूबसूरत और बदसूरत तनाव में भेद नहीं करते। हम ही सुंदर तनाव का चयन कर सकते हैं। क्या ज्ञान और बोध पाने का तनाव भी कोई बीमारी है? (आईएएनएस/आईपीएन)

(लेखक चर्चित स्तंभकार और उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हैं)

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