रांची, 17 जनवरी (आईएएनएस)। तमिलनाडु में पारंपरिक त्योहार पोंगल पर खेले जाने वाले जलिकट्टू पर सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही रोक लगा दी हो, पर झारखंड के बाजारों और मेलों में आज भी ‘मुर्गा लड़ाई’ के खास प्रकार का आयोजन किया जाता है।
रांची, 17 जनवरी (आईएएनएस)। तमिलनाडु में पारंपरिक त्योहार पोंगल पर खेले जाने वाले जलिकट्टू पर सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही रोक लगा दी हो, पर झारखंड के बाजारों और मेलों में आज भी ‘मुर्गा लड़ाई’ के खास प्रकार का आयोजन किया जाता है।
झारखंड के जनजातीय इलाकों में लगने वाले ग्रामीण हाट-बाजारों के अलावा कई अन्य स्थानों पर आज भी एक परंपरागत खेल ‘मुर्गा लड़ाई’ बेहद लोकप्रिय है। हालांकि समय के साथ इसके स्वरूप में काफी बदलाव आ गया है। पहले हारने वाला मुर्गा जीतने वाले मुर्गा के मालिक को मिल जाता था, पर अब हारने वाला मुर्गा उसके मालिक के पास ही रह जाता है। इसके अलावे अब घुड़दौड़ की तरह इस लड़ाई में लाखों रुपये के दांव भी लगाए जाते हैं।
कई इलाकों में इसके लिए प्रतियोगिता का आयोजन भी किया जाता है। झारखंड के लोहरदगा, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सिमडेगा सहित कई जिलों में इस लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार लगाया जाता है।
इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती, पर आदिवासी समाज में ऐसी मान्यता है कि उनकी कई पीढ़ियों से मुर्गा लड़ाई उनकी जिंदगी का एक मनोरंजक हिस्सा बना गया है।
मुर्गा लड़ाई के जानकार रामाकांत कहते हैं कि मुर्गा लड़ाई पूर्व में मनोरंजन का हिस्सा हुआ करता था, जहां लोग अपने पसंद के मुर्गो पर दांव भी लगाते थे पर अब इस लड़ाई के नाम पर जुआ का खेल प्रारंभ हो गया है। इस कारण आदिवासी संस्कृति की पहचान बने इस लड़ाई की पहचान गुम होती जा रही है।
करीब 20 फुट के घेरे में दो मुर्गो की लड़ाई होती है। लड़ाई के दौरान मुर्गे की पैंतरेबाजी देखने लायक होती है। लड़ाई में एक चक्र अमूमन सात से 10 मिनट तक चलता है। लड़ाई शुरू होने से पहले और लड़ाई के दौरान लोग मुर्गो पर दांव लगाते हैं। सट्टेबाज लोगों को उकसाते हुए चारों तरफ घूमते रहते हैं। जीतने वाले मुर्गे पर दांव लगाने वालों को एक रुपये के बदले तीन से पांच रुपये दिए जाते हैं। एक बार में हजारों रुपये के दांव लगते हैं। अमूमन एक दिन में तीन से पांच दर्जन मुर्गो की लड़ाई होती है, जिसमें लाखों रुपये इधर से उधर होते हैं।
इस दौरान मुर्गे को उत्साहित करने के लिए मुर्गाबाज (मुर्गा का मालिक) तरह-तरह की आवाजें निकालता रहता है, जिसके बाद मुर्गा और खतरनाक हो जाता है।
मुर्गा लड़ाई के लिए मुर्गा पालने के शौकीन अवधेश उरांव बताते हैं कि लड़ाई में प्रशिक्षित मुर्गे उतारे जाते हैं। लड़ने के लिए तैयार मुर्गे के एक पैर में अंग्रेजी के अच्छर ‘यू’ आकार का एक हथियार बंधा हुआ होता है जिसे ‘कत्थी’ कहा जाता है। ऐसा नहीं कि यह कत्थी कोई व्यक्ति बांध सकता है। इसके बांधने की भी अपनी कला है। कत्थी बांधने का कार्य करने वालों को ‘कातकीर’ कहा जाता है जो इस कला में माहिर होता है।
मुर्गे आपस में कत्थी द्वारा एक दूसरे पर वार करते रहते हैं। इस दौरान मुर्गा लहुलूहान हो जाता है। कई मौकों पर तो कत्थी से मुर्गे की गर्दन तक कट जाती है। मुर्गो की लड़ाई तभी समाप्त होती है जब तक मुर्गा घायल न हो जाए या मैदान छोड़कर भाग जाए।
जानकार बताते हैं कि मुर्गा को लड़ाकू बनाने के लिए खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है बल्कि उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। लड़ाई के लिए तैयार किए जाने वाले मुर्गे को अंधेरे में रख कर उसे गुस्सैल और चिड़चिड़ा बनाया जाता है। उसे मुर्गियों (मादा मुर्गा) से दूर रखा जाता है। इन मुर्गो को ताकतवर बनाने के लिए उन्हें सूखी मछली का घोल, किशमिश, उबला हुआ मक्का और विटामिन के इंजेक्शन तक दिए जाते हैं।
रांची के पत्रकार सन्नी शरद आईएएनएस से कहते हैं, “मुर्गा लड़ाई आदिवासी समाज की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। पूर्व में इसका आयोजन मनोरंजन के लिए किया जाता था, परंतु अब धनलोलुप लोगों ने आदिवासियों के इस गौरवशाली परंपरा को विकृत कर दिया है। आज मुर्गा लड़ाई जुआ, सट्टा तथा शराबखोरी का अड्डा बनकर रह गया है।”
उन्होंने बताया कि जमशेदपुर में मकर संक्रांति पर्व पर लगने वाले टुसू मेले और जतरा मेले में मुर्गा लड़ाई का खास आयोजन किया जाता है। इसके अलावे भी बजारों व हाटों में इस प्रकार के आयोजन किए जाते हैं।
वैसे शरद यह भी कहते हैं कि परंपरागत मुर्गा लड़ाई का स्वरूप अब काफी बदल गया है, जरूरत है उसके पुराने स्वरूप को बरकरार रखने की।