महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वैशाली गणतंत्र के लिच्छिवी वंश के महाराज सिद्धार्थ और माता त्रिशला देवी के यहां हुआ था। कहा जाता है कि वे इतने आकर्षक व तेजोमय थे कि जो भी उन्हें देखता, उनका हो जाता। उनका आध्यात्मिक व्यक्तित्व तो इतना निर्मल था कि उनके पास जाने वाले को अपनी सभी समस्याओं के समाधान मिल जाते थे। उनकी पवित्र वाणी को आचायरें ने प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध किया था, जिन्हें आगम कहा जाता है। इन आगमों में अनेक दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है, जिनमें हमें वे सूत्र प्राप्त होते हैं, जिनसे सफल व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
महावीर स्वामी ने रत्नत्रय के सिद्धांत को व्यक्ति के मौलिक विकास में सहायक माना है। रत्नत्रय के तीन रत्न हैं- सच्चा विश्वास (सटीक दृष्टि), सही ज्ञान और सही आचरण। अध्यात्म में इन्हें सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र कहा जाता है। स्वामी महावीर ने माना है कि समग्र व्यक्तित्व के लिए तीनों की आवश्यकता है।
रत्नत्रय में पहला है सच्चा विश्वास (सही दृष्टि)। यदि आप अपने लक्ष्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते या फिर खुद पर विश्वास नहीं है, तब लक्ष्य मिल ही नहीं सकता। इसी से लक्ष्य के प्रति आपकी निष्ठा का पता चलता है। स्वामी महावीर के अनुसार, इसके साथ हमें लक्ष्य तक पहुंचाने वाले उपायों का सही ज्ञान होना भी जरूरी है। यह रत्नत्रय का दूसरा रत्न है। सही ज्ञान के अभाव में हम लक्ष्य से भटक सकते हैं। लक्ष्य के बारे में हमारे पास सही तथा प्रामाणिक सूचनाएं भी होनी चाहिए, इसीलिए सम्यक ज्ञान बहुत जरूरी है। सही विश्वास, सही दृष्टि तथा सही ज्ञान एक साथ व्यक्ति में उत्पन्न होते हैं, यह जैन दर्शन की तात्ति्वक मान्यता है।
विश्वास, निष्ठा, दृष्टि तथा सही ज्ञान के बाद भी जब तक हम सही आचरण को नहीं अपनाते, तब तक व्यक्तित्व अपूर्ण है। यदि लक्ष्य पर हमें विश्वास है औररास्ते का ज्ञान भी है, किंतु यदि रास्ते पर हम चलें ही नहीं, तो मंजिल तक नहीं पहुंच सकते। पथ पर सही तरीके से चलना ही सही आचरण है।
यदि कोई यह माने कि सच्चा विश्वास मात्र सफलता दिला देगा या मात्र ज्ञान हमें सफल कर देगा या फिर विश्वास और ज्ञान से रहित मात्र आचरण हमें सफल बना देगा, तो महावीर के अनुसार यह भ्रम है। ऐसी मान्यता एकांतवाद है, जो हमें लक्ष्य से कभी नहीं मिलने देती। रत्नत्रय की पूर्णता ही व्यक्तित्व का निर्माण करती है। इसीलिए भगवान महावीर ने रत्नत्रय को आधार बनाकर विचारों में अनेकांत (विवेकपूर्वक सभी पहलुओं को समझना), वाणी में स्यादवाद (सभी पहलुओं को परखकर व्यक्त करना), आचार में अहिंसा और जीवन में अपरिग्रह के चार सूत्र भी दिए।
यदि हम किसी भी वस्तु, घटना या परिस्थिति के एक ही पहलू को देखते हैं और अन्य पक्षों को देख ही नहीं पाते, तो यह हमारे व्यक्तित्व की कमजोरी है। अनेकांत के माध्यम से व्यक्ति के बहुआयामी दृष्टिकोण का विकास होता है। व्यक्ति जब यह समझने, देखने और सोचने लगता है कि एक ही वस्तु की अनेक दृष्टियों से ही सही व्याख्या की जा सकती है और किसी एक दृष्टि से देखने पर वस्तु का पूरा स्वरूप व्याख्यायित नहीं किया जा सकता, तब उसके चिंतन का विकास होता है। इसलिए महावीर कहते हैं कि चिंतन में अनेकांत दृष्टि रखो। वहीं, स्यादवाद हमारी वाणी को नियंत्रित करता है। वह कहता है कि वाक्यविन्यास ऐसा हो, जिसमें वस्तु, घटना या परिस्थिति का कोई भी पक्ष छूट न जाए। अपनी जीभ को मर्यादा और संयम में रखेंगे तो कभी किसी के कटाक्ष का सामना नहीं करना पड़ेगा। हमारी बोली हमारे व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण भाग है, इसके द्वारा ही हम प्रभावी अभिव्यक्ति कर पाते हैं।
भगवान महावीर की मूल शिक्षा अहिंसा का सीधा अर्थ है कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट न पहुंचाएं। हमारे आचार में अहिंसा हो, तभी वह संपूर्ण व्यक्तित्व बन सकता है। इसी तरह स्वामी महावीर ने अपरिग्रह का सूत्र दिया, जिसका अर्थ है त्याग। उन्होंने कहा कि उतना रखो, जितनी आवश्यकता है। परिग्रह (भौतिक चीजें इकट्ठा करना) तनाव और आसक्ति को जन्म देता है। आज अपराध, हत्याएं, भ्रष्टाचार, दहेज आदि परिग्रह की ही देन हैं।
महावीर का कहना है कि हमारा व्यक्तित्व मात्र शारीरिक सौंदर्य से ही निर्मित नहीं होता, उसमें हमारा चिंतन, वाणी और व्यवहार बहुत जरूरी है। यदि आज के युवा भगवान महावीर के इन सिद्धांतों को समझेंगे तो वे प्रभावशाली व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते हैं।