पटना, 1 मार्च (आईएएनएस)। आधुनिकता की रेलमपेल और गांवों को छोड़ शहर की ओर भागने की अंधी दौड़ में ग्रामीण परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं। अभी एक दशक पूर्व तक माघ महीने से ही गांवों में फागुनी आहट मिलने लगती थी, लेकिन आज के जमाने में फागुन में भी गांव फागुनी बयार से अछूते दिख रहे हैं।
पटना, 1 मार्च (आईएएनएस)। आधुनिकता की रेलमपेल और गांवों को छोड़ शहर की ओर भागने की अंधी दौड़ में ग्रामीण परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं। अभी एक दशक पूर्व तक माघ महीने से ही गांवों में फागुनी आहट मिलने लगती थी, लेकिन आज के जमाने में फागुन में भी गांव फागुनी बयार से अछूते दिख रहे हैं।
आज जहां पुष्प मंजरी, वसंत की अंगड़ाई, पछुआ हवा की सरसराहट फागुन का स्पष्ट संकेत दे रही हैं, परंतु आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपराएं निढ़ाल हो गई हैं। फागुन में शहरों से लेकर गांवों तक में फाग गाने और ढोल की थाप सुनने को कान तरस गए हैं। फागुन महीने में फाग का राग शहरों में ही नहीं गांवों के चौपालों में भी शायद ही सुनाई दे रहा हो।
फाग गीत मुख्य रूप से पुरुषों का गीत है, जो वसंत पंचमी से लेकर होलिका दहन तक गाया जाता है। कुछ दिन पूर्व तक महाशिवरात्रि पर्व के आते-आते फाग गीतों की धूम मचती थी। प्रत्येक गांव में ढोल, मंजीरे और करताल की आवाज के बीच फगुआ के गाने गूंजते थे।
यही नहीं, पहले जैसे जोगीरा गाने की परंपरा भी दम तोड़ रही है। कई लोग इसका कारण बैर, भेदभाव, कटुता और बढ़ते वैमनस्य को मानते हैं तो कई लोग आधुनिकता का हावी हो जाना मुख्य कारण बताते हैं।
औरंगाबाद जिले के प्रसिद्ध फगुआ गायक ओंकारनाथ बताते हैं, “प्रेम सौहार्द्र के पर्व होली में लोग दुश्मन के भी गले लग जाते थे। होली एक दिन का त्योहार नहीं था, यह एक महीने तक चलने वाला त्योहार था, जिसमें बाहर रहने वाले लोग भी शामिल होते थे।”
गांव भर के लोग एक जगह एकत्र हो जाते थे और फिर होली के हुड़दंग में मस्त हो जाते थे। हर गांव में एक महीने तक ढोल और मंजीरे बजते थे, लेकिन अब एक-दूसरे में सामंजस्य का अभाव, गायकों की कमी, एक-दूसरे के बीच बढ़ता वैमनस्य सहित कई कारण हैं। हमारी यह पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है। हमारी युवा पीढ़ी फगुआ गीतों की ‘लय सुर ताल’ भी भूल गई है।
सासाराम के फगुआ गायक मयंक तिवारी कहते हैं, “होली के एक माह पूर्व ही जोगीरा के लिए पुरुष का चयन कर उसे नर्तकी के भेष में साथ रखा जाता थ। लोगों के बीच घिरकर वह फाग गायकों के बोल पर नृत्य करता था। फाग गीतों में पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, देवर-भाभी के रिश्तों में हास्यपुट तो दिए ही जाते हैं, धार्मिक गीतों का भी समावेश किया जाता है।”
फगुआ के मौके पर डेढ़ ताल, चौताल, बेलवरिया गीत गाए जाते थे, परंतु अब गायन की यह परंपरा टूटती जा रही है। अब इनकी जगह फूहड़ गीतों पर डांस करते युवक नजर आते हैं।
गांव के बुजुर्ग भी मानते हैं कि लोगों में प्रेमभवना ही गायब हो गई है। अब लोग टीवी से चिपके हुए हैं। समाज और परंपराएं दम तोड़ रही हैं। पहले गांवों के चौपालों से निकाले जाने वाले झुमटे में बुजुर्ग से लेकर युवा शामिल होते थे। इसके माध्यम से समाज के लोग एकता के सूत्र में बंधे होने के संकेत भी देते थे।
झारखंड के विनोबा भावे विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर विमलेश्वर झा कहते हैं कि युवा पीढ़ी तो इन परंपराओं से ही अनभिज्ञ है। वे कहते हैं, “कुछ वर्षो पहले कीर्तन मंडली पूरे गांवों में घूमती थी, परंतु अब यह शायद ही देखने को मिलता है।”
बकौल झा, “कुछ दशक पहले तक रईसों और जमींदारों के यहां होली के मौके पर ध्रुपद-धमार की महफिलें जमती थीं। ध्रुपद शैली में गाई जाने वाली संगीत विद्या धमार वस्तुत: होरी ही है।”
वे कहते हैं कि अब न लोगों के पास समय है और न ही अपनी परंपराओं को जीवित रखने की ललक। इस कारण परंपराएं दम तोड़ रही हैं और फाग की महफिलें सूनी हो रही हैं।