मृत्यु सत्य है। देह एक दिन खत्म हो जानी है, यह तय है। मृत्यु से बड़ा कोई सत्य नहीं है। लेकिन कोई भी इंसान देह के निष्क्रिय हो जाने मात्र से नहीं मरता। कई बार जीवित रहते हुए भी व्यक्ति मृतक हो जाता है।
रामचरित मानस के लंकाकांड में इसका बहुत सुंदर वर्णन मिलता है। रावण-अंगद संवाद में ये चौपाइयां आती हैं। तुलसीदास जी ने 14 तरह के लोगों के मृत समान ही माना है। अगर हममे ये एक भी दुर्गुण है तो हम भी जीते जी मृतक के समान हैं।
रामचरित मानस के लंका कांड अंगद-रावण संवाद में इसका वर्णन है। अंगद रावण से कहते हैं –
कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा। अतिदरिद्र अजसि अतिबूढ़ा।।
सदारोगबस संतत क्रोधी। विष्णु विमूख श्रुति संत विरोधी।।
तनुपोषक निंदक अघखानी। जिवत सव सम चौदह प्रानी।।
वाम मार्गी – जो पूरी दुनिया से उल्टा चले। जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो। नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो।
कामवश – अत्यंत भोगी, विषयासक्त (संसार के भोगो) ने उसे मार दिया हैं। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होती। ऐसा प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर जीता है।
कंजूस – कंजूस मरा हुआ हैं। जो व्यक्ति धर्म के कार्य करने में, आर्थिक रुप से किसी कल्याण कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो। दान करने से बचता हो। ऐसा आदमी भी मरे समान ही है।
विमूढ़ – अत्यंत मूढ़ (मूर्ख) मरा हुआ हैं। जिसके पास विवेक बुद्धि नहीं हो। जो खुद निर्णय ना ले सके। हर काम को समझने या निर्णय को लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृत के समान ही है।
अति दरिद्र – गरीबी सबसे बड़ा श्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो वो भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ हैं। दरिद्र व्यक्ति को दुत्कारो मत क्योकि वो पहले ही मरा हुआ होता हैं।
अजसि – जिसको संसार मे बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ हैं। जो घर, परिवार, कुटुंब, समाज, नगर या राष्ट्र किसी भी ईकाइ में सम्मान नहीं पाता, वो व्यक्ति मरे समान ही होता है।