जगननाथ पूरी मंदिर में रथ महोत्सव का सबसे ज्यादा महत्व यह है कि इससे भक्तजनों को अपने प्रिय आराध्य देव की एक झलक मिल जाती है। जैसे भगवान आम जनता से मिलने के लिए अपने मंदिर से बाहर आये हो। यह रथ महोत्सव बेहद लोकप्रिय हो गया है और इसने इतना महत्व प्राप्त कर लिया है कि अब यह केवल पुरी तक ही सीमित नहीं है।
भगवान जगन्नाथ तथा उनका रथ महोत्सव मिलन, एकता तथा अखंडता का प्रतीक है। यद्यपि वे पुरी में विराजमान हैं फिर भी वे इस संपूर्ण ब्रह्मांड के भगवान हैं तथा उनका प्रभावशाली चिताकर्षण सार्वभौमिक है। सभी लोग उनसे संबंधित हैं एवं वे सभी से संबंधित हैं। उनके विशाल नेत्रों के सामनें सभी बराबर हैं।
रथ यात्रा और नव कालेबाड़ा पुरी के प्रसिद्ध पर्व हैं। ये दोनों पर्व भगवान जगननाथ की मुख्य मूर्ति से संबद्ध हैं। नव कालेबाड़ा पर्व बहुत ही महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है, तीनों मूर्तियों- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का बाहरी रूप बदला जाता है। इन नए रूपों को विशेष रूप से सुगंधित चंदन-नीम के पेड़ों से निर्धारित कड़ी धार्मिक रीतियों के अनुसार सुगंधित किया जाता है। इस दौरान पूरे विधि-विधान और भव्य तरीके से लकड़ी को मंदिर में लाया जाता है।
इस दौरान विश्वकर्मा (लकड़ी के शिल्पी) 21 दिन और रात के लिए मंदिर में प्रवेश करते हैं और नितांत गोपनीय ढंग से मूर्तियों को अंतिम रूप देते हैं। इन नए आदर्श रूपों में से प्रत्येक मूर्ति के नए रूप में ब्रह्मा को प्रवेश कराने के बाद उसे मंदिर में रखा जाता है। यह कार्य भी पूर्ण धार्मिक विधि-विधान से किया जाता है।
भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं। यहाँ की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। स्कंद पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं।
यहां पर बारह महत्वपूर्ण त्यौहार मनाये जाते हैं। लेकिन इनमें सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार जिसने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है वह रथयात्रा ही है। यह यात्रा आषाढ़ महीने (जून-जुलाई) मे आता है। भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ गुडिचा मंदिर पर वार्षिक भ्रमण पर जाते है जो उनके एक सगे संबधी का घर है। ये तीनों देव वहां के लिए अपनी यात्रा सजे संवरे रथों पर सवार होकर करते हैं, इसीलिए इसे रथ यात्रा अथवा रथ महोत्सव कहते हैं। इन तीनों देवों के रथ अलग-अलग होते हैं जिन्हें उनके भक्त गुंडिचा मंदिर तक खींचते हैं। नंदीघोष नामक रथ 45.6 फीट ऊंचा है जिसमे भगवान जगन्नाथ सवार होते हैं। तालध्वज नामक रथ 45 फीट ऊंचा है जिसमे भगवान बलभद्र सवार होते हैं। दर्पदलन नामक रथ 44.6 फीट ऊंचा है जिसमे देवी सुभद्रा सवार होती है। ये रथ बड़े ही विशाल होते हैं तथा इन्हें रथ में सवार देव के सांकेतिक रंगों के अनुसार ही सजाया जाता है। देवों को लाने के लिए इन रथों को मंदिर के बाहर एक परंपरा के अनुसार ही खड़ा किया जाता जिसे पहंडी बीजे कहते हैं। गजपति स्वर्णिम झाडु से सफाई करता है। केवल तभी रथों की खींचा जाता है। ये तीनों देव गुंडिचा मंदिर में सात दिनों तक विश्राम करते हैं और फिर इसी तरह से उन्हें वापस उनके मुख्य मंदिर में लाया जाता है। इस प्रकार नौ दिनों तक चलने वाला यह रथ महोत्सव समाप्त होता है। यह अनोंखा रथ महोत्सव कब से शुरू हुआ किसी को पता नहीं है। जबकि रथ शब्द ऋंगवेद तथा अथर्ववेद में भी आया है तथा भगवान सूर्य का रथ पर सवार होने को भी पौराणिक कथाओं में वर्णित है।