रीतू तोमर
नई दिल्ली, 12 जनवरी (एजेंसी)| बुंदेलखंड का सूखा बीते कई सालों से सुर्खियों में है लेकिन उससे भी ज्यादा सुर्खियां बटोर रही है, घास की रोटियां। बुंदेलखंड के हालात किसी से छिपे हुए नहीं है। यहां की जमीन बंजर पड़ी है। जलस्रोत सूख चुके हैं। भूमिगत जलस्तर तेजी से घटा है। सूखे से पीड़ित लोगों का लगातार पलायन जारी है। गांव के गांव खाली हो गए हैं। अवैध खनन माफियाओं ने बुंदेलखंडी जमीन को खोखला कर दिया है। एक के बाद एक समितियां बनाकर बुंदेलखंड को बचाने की खोखली एवं कागजी कार्यवाही की जा रही हैं लेकिन क्या कभी समितियां हालात बदल पाई हैं?
बुंदेलखंड के कुल 13 जिलों में से सात उत्तर प्रदेश में जबकि छह मध्य प्रदेश में आते हैं लेकिन इन सभी जिलों में हालात एक जैसे ही हैं। बुंदेलखंड की असल समस्या सूखा है लेकिन सूखे की स्थिति से निपटने के लिए क्या किया जा रहा है? यहां चल रहे अवैध खनन के काले कारनामे को रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए?
इन मुद्दों पर काम करने से इतर घास की रोटी खाने के मुद्दे को प्रमुखता से उछाला जा रहा है। बुंदेलखंड में मीडिया का एक बड़ा वर्ग डेरा डाले बैठा है और स्थानीय लोगों द्वारा घास की रोटियां खाए जाने का बखूबी प्रचार कर रहा है। लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, या इसकी पीछे की वास्तविकता क्या है। यह जानने में किसी ने जहमत नहीं उठाई।
‘बुंदेलखंड डॉट इन’ से जुड़े और बुंदेलखंड अभियान में कार्यरत आशीष सागर कहते हैं, “यहां के लोगों द्वारा घास की रोटियां खाने की बात गलत ही नहीं बल्कि हास्यास्पद है। यहां के लोग जो रोटियां खा रहे हैं, वह घास से नहीं बल्कि ‘फिकारा’ से बनी है, जो एक तरह का मोटा अनाज है। बुंदेलखंड की असल समस्या घास की रोटियां नहीं बल्कि अवैध खनन है, जिस पर लगाम लगाने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है।”
बुंदेलखंड के ही एक किसान नरेंद्र गोसाई कहते हैं, “हमें पता है कि यह फिकारा है लेकिन जो लोग बुंदेलखंड को नहीं जानते, वे इसे घास-फूस ही बोलेंगे। इसमें हम क्या कर सकते हैं।”
आशीष का कहना है, “बुंदेलखंड के हालात नए नहीं हैं। यह एक-दो साल की नहीं बल्कि बीस साल पुरानी त्रासदी है। लोगों के पास खाने के लिए भरपेट अनाज नहीं है। अधिकतर इलाकों में पानी खत्म हो चुका है। इन हालातों के बीच लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।”
बुंदेलखंड में किसानों की व्यथा यह है कि वे अपने शारीरिक अंगों को बेचकर अपने बच्चों का पेट पालने को मजबूर हैं। सबसे अधिक शर्मनाक बात यह है कि किसानों की व्यथा को लेकर पिछले 15 सालों में तमाम तरह की समितियां बन चुकी हैं।
महाराष्ट्र के विदर्भ में लगभग 20 समितियां अपनी रिपोर्ट दर्ज करा चुकी थीं और नतीजा क्या निकला वही-ढाक के तीन पात। ठीक इसी तर्ज पर बुंदेलखंड भी अकादमिक अध्ययनों और रिपोर्टों का विषय बना हुआ है। बुंदेलखंड में सर्वेक्षण से हालात बदलने वाले नहीं है।
देश में किसानों की स्थिति क्या है। यह जानने के लिए इन आंकड़ों पर गौर फरमाइए। साल 1995 से 2010 के बीच ढाई लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार साल 2010 में ही 15,964 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
वनस्पतिशास्त्री डॉ. अरविंद कहते हैं, “घास की 46,000 प्रजातियां होती है, जिसमें से अधिकतर खाने योग्य होती हैं। फिकारा एक परंपरागत उपज है, जिसे खाया जाता रहा है। फिकारा के अलावा ‘समा’ भी खाने योग्य है। शहरी दुनिया में रहने वाले लोग इस तरह के खाद्यान्नों से परिचित नहीं होते। मैंने तो बथुआ को भी घास-फूस कहकर उसका बहिष्कार करते देखा है।”
बुंदलेखंड में 1987 के बाद यह 19वां सूखा है। पानी की कमी से जमीनें बंजर हो चुकी हैं। यहां पिछले छह साल में 3,223 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बुंदेलखंड से केंद्र सरकार को सालाना 510 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होता है। इतने भारी भरकम राजस्व के बावजूद भी यहां बंद पड़ी मनरेगा की परियोजनाओं को लेकर सरकार सचेत नहीं हैं।
आशीष कहते हैं कि बुंदेलखंड में 200 गैरसरकारी संस्थाएं (एनजीओ) काम कर रही हैं और समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि यहां प्रमुख बांधों का जलस्तर काफी घट चुका है, जिससे जल संकट की समस्या विकराल रूप ले चुकी है।
बुंदेलखंड प्राकृतिक आपदाओं से कम मानव गतिविधियों से ज्यादा त्रस्त है। क्षेत्र में अवैध खनन का कारोबार किसी के छिपा हुआ नहीं है। पहाड़ के पहाड़ खोद ड़ाले गए हैं। 200 फुट नीचे तक जमीन खोद दिए गए हैं।
भूतल पानी जितनी तेजी से घटा है उसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। इन सबके बीच फसल बर्बादी की एवज में किसानों के बीच 25 रुपये से लेकर 28 रुपये तक के चेक बांटने जैसे मामले जलते घाव पर नमक छिड़कने का काम करते हैं।
दूसरी तरफ, मीडिया का एक खेमा ऐसा भी जो यह कहा है कि इस क्षेत्र के किसान घास की रोटियां खा रहे हैं या नहीं, यह तय करना सरकार का काम है। भला एक मीडियाकर्मी को इससे क्या? ऐसे मीडियाकर्मी उन तमाम स्वंयसेवी संगठनों के लिए पर्दे का काम कर रहे हैं, जो सालों से इस क्षेत्र में बदहाली के नाम पर काम करते हुए सरकार से लगातार ‘धनउगाही’ कर रही हैं।
इस क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले कुछ मीडियाकर्मी हालांकि इस सच्चाई से परिचित हैं और इसे सामने भी लाना चाहते हैं। कुछ लगातार ऐसा करते रहे हैं लेकिन मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सरकारों द्वारा घास की रोटी के मुद्दे पर कोई सफाई नहीं दिए जाने के कारण उनकी बात दबकर रह जाती है।
बुंदेलखंड के जानकार कहते हैं कि बुंदेलखंड की इस त्रासदी का सर्वाधिक जिम्मेदार अवैध खनन और सरकार की लापरवाही है। जब तक जल, जमीन और जंगल का संरक्षण नहीं किया जाएगा। देश में इसी तरह एक और विदर्भ और एक और बुंदेलखंड बनते रहेंगे।