गंगा की समस्याएं अनगिनत हैं लेकिन उन सभी के मूल में मनुष्य है, जिसका उद्धार करने के लिए वह पृथ्वी पर अवतरित हुई थी। मनुष्य ने पिछले दो सौ वर्षों से अपनी तथाकथित तरक्की के लिए जो उपभोगवादी रास्ता चुना है, वह अभी तो बहुत हरा-भरा और लुभावना दिख रहा है, लेकिन अंततः वह उस रेगिस्तान की ओर जाता है, जहां विनाश के सिवाय कुछ भी नहीं है।– के. एन. गोविन्दाचार्य
भारत के पौराणिक साहित्य से लेकर यहां की लोककथाओं तक में ऐसे कई प्रसंग मिल जाएंगे, जिसमें गंगा की अविरल धारा को उसी तरह त्रिकाल सत्य माना गया है, जैसे सूर्य और चंद्रमा को। लोग गंगा की धारा को अटूट सत्य मानकर कसमें खाते थे, आशीर्वाद देते थे। विवाह के समय मांगलिक गीतों में गाया जाता था, ‘जब तक गंग जमुन की धारा अविचल रहे सुहाग तुम्हारा।’ क्या आज इस गीत का कोई औचित्य रह गया है?
अतीत का विश्वास आज टूट चुका है। गंगा की अविरल धारा खंडित हो चुकी है। भागीरथी, धौलीगंगा, ऋषिगंगा, बाणगंगा, भिलंगना, टोंस, नंदाकिनी, मंदाकिनी, अलकनंदा, केदारगंगा, दुग्धगंगा, हेमगंगा, हनुमानगंगा, कंचनगंगा, धेनुगंगा आदि वो नदियां हैं, जो गंगा की मूल धारा को जल देती हैं या देती थीं। हरिद्वार में आने से पहले जिन 27 प्रमुख नदियों से गंगा को पानी मिलता था, उनमें से 11 नदियां तो धरा से ही विलुप्त हो चुकी हैं और पांच सूख गई हैं। ग्यारह के जलस्तर में भी काफी कमी हो गई है।
युगों-युगों से भारत की सभ्यता और संस्कृति की प्रतीक रही गंगा भविष्य में भी बहती रहेगी, या घोर कलियुग के आगमन का संकेत देते हुए विलुप्त हो जाएगी, इस बारे में अभी कुछ कहना मुश्किल है। लेकिन इस समय जो परिस्थितियां बन रही हैं, उसे देखते हुए संतोष व्यक्त नहीं किया जा सकता। गंगा की समस्याएं अनगिनत हैं लेकिन उन सभी के मूल में मनुष्य है, जिसका उद्धार करने के लिए वह पृथ्वी पर अवतरित हुई थी। मनुष्य ने पिछले दो सौ वर्षों से अपनी तथाकथित तरक्की के लिए जो उपभोगवादी रास्ता चुना है, वह अभी तो बहुत हरा-भरा और लुभावना दिख रहा है, लेकिन अंततः वह उस रेगिस्तान की ओर जाता है, जहां विनाश के सिवाय कुछ भी नहीं है।गंगा नदी भारत के बहुत बड़े भूभाग का हजारों वर्षों से पालन-पोषण करती आ रही है। हमारे पूर्वजों ने गंगाजल को इस तरह इस्तेमाल किया कि गंगा के अस्तित्व पर कभी कोई संकट नहीं आया। लेकिन आज गंगाजल के संयमित उपभोग की बजाए उसके दोहन और शोषण पर जोर है। इसके चलते जो समस्याएं पैदा हुई हैं, या होने वाली हैं, उनके कुछ आयाम इस प्रकार हैं-
सुरंगों और बांधों का दुष्चक्र :
भारत में औद्योगिक विकास को तेज करने के लिए बिजली की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए जल विद्युत परियोजनाओं की बाढ़ सी आ गई। पहाड़ों से निकलने वाली नदियों के पानी को बांध बनाकर रोका गया, ताकि एकत्रित पानी को तंग सुरंगों से गुजारते हुए इस प्रकार गिराया जा सके कि उससे टरबाइन चले और बिजली बने। जलविद्युत परियोजनाओं से उत्पन्न बिजली को प्रदूषण मुक्त बिजली कहकर सराहा गया। इसे सस्ती भी बताया गया। लेकिन सच्चाई कुछ इस प्रकार है–
–बांध परियोजनाओं में इतने बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य होता है कि उससे हिमालय का नाजुक पर्यावरण प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। कागजों में जितनी सतर्कता की बात की जाती है, धरातल पर उसका शतांश भी नहीं होता है। इसलिए इन परियोजनाओं को प्रदूषण मुक्त तो कतई नहीं कहा जा सकता।
–हिमालय की गोद से निकलने के कारण गंगा प्रतिवर्ष हिमालय से 36 करोड़ टन ऊर्वर मिट्टी ले आती है। इसी मिट्टी से भारत का सबसे उपजाऊ गंगा-यमुना का दोआबा बना है, जो भारत की खाद्य सुरक्षा की सबसे बड़ी गारंटी है। बांध बन जाने के कारण गंगा की उर्वर गाद मैदानों में नहीं आ पाएगी। यह गाद बांधों की तली में जमा होती जाएगी। परिणाम स्वरूप बांधों की जलग्रहण क्षमता कम होती जाएगी और कुछ दशकों में ही उनकी बिजली उत्पादन क्षमता समाप्त प्राय हो जाएगी। साथ ही उपजाऊ मिट्टी मैदानों में न आने के कारण खाद्यान्न उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ेगा।
–बांधों में जल की उपलब्धता घटने के साथ ही दूसरी समस्या यह है कि पीछे ग्लेसियर सिकुड़ रहे हैं। इस कारण वहां से भी पानी की आवक हर साल घट रही है। जब इन जल विद्युत परियोजनाओं को आवश्यक जल नहीं मिलेगा तो उनका उत्पादन निश्चित रूप से प्रभावित होगा। इस तरह कुछ दशक में ही पूरी योजना बंद करनी पड़ेगी। इस प्रकार देखें तो पता चलता है कि जल विद्युत परियोजनाओं के जरिए पैदा होने वाली बिजली लंबे समय में सस्ती नहीं बल्कि बहुत महंगी साबित होती है।
–बांधों में पानी रोकने और उसे सुरंगों से गुजारने के कारण पहाड़ों का पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है। इससे बाढ़, भूजल में कमी, भूस्खलन और भूकंप के खतरे बढ़ रहे हैं। एक ही जगह पानी इकट्ठा हो जाने के कारण आगे के हिस्से में नदी सूख जाती है। प्रवाह के अभाव में भूमिगत पुनर्भरण (रिचार्ज) की प्रक्रिया ठप्प हो जाती है।
–प्रवाह रुकने के कारण जल की गुणवत्ता भी खराब हुई। भागीरथी के जल में प्रदूषणरोधी गुण इसके प्रवाह तंत्र के कारण है। प्रवाह बाधित होने की हालत में ‘आक्सीडेशन’ की प्रक्रिया रुक जाएगी। इस प्रक्रिया के रुकने से इसका प्रदूषणरोधी गुण कम होता जाएगा, जिसका दुष्प्रभाव गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों पर भी पड़ सकता है। इससे पूरे क्षेत्र की भू-सांस्कृतिक विविधिता खत्म हो सकती है।
–बांध परियोजनाओं के चलते उनके क्षेत्र में आने वाले लाखों लोगों को विस्थापित किया गया, जो पुनर्वास के सरकारी दावों के बावजूद आज भी दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हैं। नगरों की बिजली की भूख मिटाने के लिए भारत के ही कुछ नागरिकों को बर्बाद करना किसी भी तरीके से उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
–पहाड़ों में उंचाई पर स्थित बांधों में यदि कभी कोई दुर्घटना घटी और उसमें जमा पानी बांध की दीवारों को तोड़ता हुआ मैदानों की ओर बढ़ा तो हाहाकार मच जाएगा। छोटे शहरों की तो बात ही छोड़िए, दिल्ली के लिए भी यह भारी पड़ेगा। हमारे योजनाकार मान कर चल रहे हैं कि हमारे बांध किसी भी प्राकृतिक या मानव निर्मित दुर्घटना से प्रभावित नहीं होंगे। क्या वास्तव में ऐसा माना जा सकता है?
गहराई से देखा जाए तो कोई भी कहेगा कि नदियों पर बांध बनाना न केवल दीर्घकालीन दृष्टि से बल्कि अल्पकालीन दृष्टि से भी आम जनता के लिए घाटे का सौदा है। लेकिन इन परियोजनाओं से इतने प्रभावी लोगों के हित जुड़े हैं कि उनके खिलाफ उठी आवाज को विकास विरोधी कहकर चुप करवा दिया जाता है।
उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस दोनों का शासन रहा है, लेकिन बांधों के बारे में दोनों की नीतियों में मोटे तौर पर कोई फर्क नहीं देखने को मिला। अभी हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने कांग्रेस पार्टी के श्री बहुगुणा ने जोर देकर कहा है कि वे उत्तराखंड को ऊर्जा क्षेत्र में अग्रणी बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। हम उम्मीद करते हैं कि वे बांधों के प्रति दुराग्रह छोड़ ऊर्जा उत्पादन के दूसरे साफ-सुथरे तरीकों पर ध्यान देंगे। बड़े बांध जितनी समस्याओं का समाधान करते हैं, उससे कई गुना समस्याएं उनके कारण पैदा होती हैं, यह बात उन्हें समझाए जाने की जरूरत है। नए बांधों के निर्माण पर तत्काल प्रभाव से रोक तो लगानी ही चाहिए। इसी के साथ निर्मित बांधों से हो रहे नुकसान को देखते हुए उनसे मुक्त होने के उपाय भी ढूंढे जाने चाहिएं। अमेरिका में कई बांध तोड़े गए हैं। थाईलैंड में रसाई-सलाई बांध को लोगों के कड़े विरोध के कारण तोड़ दिया गया। देखना है कि हमारी सरकारें कब इतनी हिम्मत जुटा पाती हैं?
जल निकासी :
गंगा तभी गंगा रह पाएगी जब उसमें वेग हो। वह कल-कल निनाद करती हुई बहे। लेकिन गंगा अब कल-कल निनाद करती हुई नहीं बहती। वह अब सुरंगों में चक्कर काटती और बांधों में अटकती-फंसती बहने की कोशिश करती है। पहाड़ों से उतरने के बाद गंगा जब मैदानों में पहुंचती है, तो उसका अधिकांश जल सिंचाई और पेयजल के लिए बनी नहरों में खींच लिया जाता है। असलियत यह है कि यदि गंगा में उसकी सहायक नदियों का जल न पहुंचे तो बंगाल में गंगासागर तक गंगा की एक बंूद भी न पहुंच पाए। अभी हालत यह है कि धार्मिक स्नान पर्व आदि के मौके पर बांधों से अतिरिक्त पानी छोड़ा जाता है, ताकि श्रद्धालु स्नान करने की औपचारिकता निभा पाएं।
वर्तमान समय में जिन लोगों के हाथ में देश को चलाने की जिम्मेदारी है, अगर उनकी बुद्धि से सोचंे तो गंगा समेत तमाम नदियों में बहता पानी एक संसाधन है, जिसका बहकर समुद्र में जाना बर्बादी है। इसलिए वे नदियों से प्राकृतिक जल की एक-एक बूंद निकाल लेना चाहते हैं। यह सोच बौद्धिक दिवालिएपन की निशानी है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस सृष्टि में अकारण कुछ नहीं होता। नदियों का पानी जितना मनुष्य के लिए जरूरी है, उतना ही समुद्री जीवों के लिए भी। समुद्र तक स्वच्छ जल नहीं पहुंच पाने के कारण जलचक्र ही अव्यवस्थित हो जाएगा। इसका दुष्परिणाम अंततः मनुष्य को भी झेलना पड़ेगा। विशेषज्ञों का मानना है कि किसी नदी में जितना जल प्रवाहित होता है, उसकी 30 प्रतिशति से अधिक निकासी नदी के स्वास्थ्य के लिए घातक है। यदि हम अक्षय विकास चाहते हैं तो हमें यह बात याद रखनी होगी। हमें अपने विकास को इस प्रकार नियोजित करना होगा कि प्रवाह के तीस प्रतिशत से ही हमारा गुजारा हो जाए।
शहरी प्रदूषण :
हमारे नीति नियंता जिस रास्ते पर देश को लेकर निकल पड़े हैं, उसमें नदियों को नाले के रूप में इस्तेमाल किया जाना तय है। साधारण शब्दों में कहें तो सरकार की जलनीति यही है कि नदियों का अधिक से अधिक प्राकृतिक जल निकाल कर मानव उपभोग के लिए इस्तेमाल हो, और अंततः सीवर के रूप में जो जल निकलता है, उसे नदियों के माध्यम से समुद्र तक ले जाने की व्यवस्था की जाए।
1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान के माध्यम से गंगा को साफ करने की बात चलाई थी। आज उस बात को 25 साल से अधिक हो गए हैं। इस दौरान हजारों करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। लेकिन गंगा की हालत बद से बदतर होती गई है।
छोटे गांवों और कस्बों को छोड़ दिया जाए तो अभी गंगा तट पर मुश्किल से तीन-चार बड़े शहर ही हैं, जिनमें औद्योगिक गतिविधियों के कारण कानपुर में सबसे ज्यादा प्रदूषण होता है। मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश में गंगा एक्सप्रेस वे की जो योजना बनाई थी, उसे यदि लागू कर दिया गया तो गंगा तट पर औद्योगिक नगरों की बाढ़ आ जाएगी। प्रदूषण नियंत्रण का हमारे देश में जो हाल है, उसे देखते हुए नहीं लगता कि इन प्रस्तावित नगरों का प्रदूषण गंगा झेल पाएगी। ऐसी स्थिति में गंगा का वही हाल होगा जो दिल्ली में यमुना का हुआ है। जो लोग इस बात को नकारते हैं, उन्हें चाहिए कि पहले वे दिल्ली में यमुना को साफ करने की कोशिश करके देख लें।
समाधान :
गंगा को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए कई स्तरों पर कार्य करना होगा। लेकिन सबसे जरूरी है कि गंगा के अविरल प्रवाह को सुनिश्चित किया जाए। इसके बिना सारे उपाय निरर्थक साबित होंगे। स्वस्थ नदी के रूप में गंगा का हमारे बीच रहना जरूरी है। गंगा बचेगी, तो हम बचेंगे। गंगा रक्षा के वास्तविक उपाय करने के लिए हमारी जीवनदृष्टि में बदलाव जरूरी है। उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए। लेकिन तात्कालिक रूप से कुछ कदम अविलंब उठाए जाने चाहिए। ये है।
1. आगामी कुंभ मेला को देखते हुए गंगा में दिसंबर से फरवरी तक प्रतिदिन न्यूनतम 250 क्यूसेक्स पानी छोड़ा जाए ताकि कुंभ में आए तीर्थयात्रियों एवं कल्प वासियों को पर्याप्त जल प्रवाह मिल सके।
2. बाढ़ के समय गंगा जी का जो वृहत्तर तट क्षेत्र होता है, उसके दोनों ओर के 500 मीटर के दायरे की पैमाइश हो और उसे सरकारी रेकार्ड में गंगा जी की जमीन के तौर पर दर्ज किया जाए और इस जमीन पर अतिक्रमण रोकने के लिए आवश्यक इंतजाम तुरंत किए जाने चाहिए।
यह बात सच है कि गंगा सामान्य नदी नहीं है। इसलिए उसके संरक्षण के विशेष उपाय होने चाहिए। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम दूसरी नदियों को नष्ट-भ्रष्ट करते चलें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि गंगा ही नहीं, बल्कि सभी नदियों का बचना जरूरी है। हमारे पुराणों ने ही नहीं, बल्कि अनेक आधुनिक वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि जल में जीवन होता है यानी नदी में जीवंतता होती है। उसकी हिलोरें, उसका विभिन्न स्थानों पर विभिन्न स्वरूप में फैलना, सिकुड़ना, गरजना, शांत बहना, ये सभी उसकी जीवंतता के परिचायक हैं। मनुष्य को इस बात का कोई हक नहीं कि वह नदियों का जीवन छीन ले। यदि मनुष्य आज यह अपराध कर रहा है, तो उसे प्रकृति से मिलने वाले दंड के लिए भी तैयार रहना चाहिए।