अनिल सिंह की कलम से –मो.-9039130023
सिंहस्थ समागम का समय नजदीक है,साधू-संतों के डेरे उज्जैन में दस्तक देने लगे हैं .कई बड़ी पदवियों से मंडित हैं ,कुछ गुमनाम हैं,कई सच्चे,कुछ साधू के भेष में धोखेबाज भी हैं.श्रद्धालुओं को कुछ फर्क नहीं पड़ता की कौन क्या है वे तो अपनी श्रद्धा-सहेली को साथ ले कर सिंहस्थ के मेले में जाते हैं और उन्हें प्रणिपात कर सुकून पा वापस कर्मक्षेत्र में वापस लौट आते हैं.कई मत-मतान्तर के संत इस समागम में शामिल होते हैं लेकिन जिज्ञासा के केंद्र बने रहते हैं “अघोरी” साधक .
सदियों से आज तक ये अघोरी साधक जनमानस के लिए एक अबूझ पहेली बने हुए हैं ,जो मिलते भी हैं वे “अघोरी” होते ही नहीं हैं बस सुनी-सुनाई पर सिद्धांतों से दूर दिग्भ्रमित स्वयं भी और समाज में भ्रम फैला गायब हो जाते हैं.बाद में लोग अपने को ठगा सा महसूस करते हैं और किसी से इस विषय में चर्चा भी नहीं करते.मेरा प्रयास है की जन-जन तक इस भ्रातीं को तोड़ते हुए यह सन्देश पहचाऊं ताकि अघोर की सच्चाई से अवगत हो सकें और अपनी श्रद्धा को चोटिल होने से बचाएं.
क्या है अघोर ?
जो सहज है ,सरल है ,अघ्रण है वह अघोर है अर्थात जो घोर ना कठिन ना हो,कडवा ना हो वह अघोर है.अघोर से बने शब्द अघोरी एवं औघड़ शब्द को एक दुसरे का पर्याय भी समझा जाता है.
इन साधकों को देश-काल अनुसार सरभंग ,कापालिक,ब्र्म्हनिष्ठ के नाम से भी जाना जाता है.इस मत में गुरु-परंपरा द्वारा ही साधकों का परिचय जाना जाता है.भारत में प्रमुख दो परम्परायें कीनारामी और गोरखनाथ की परम्परा जानी जाती हैं.
किनारामी परंपरा के प्रसिद्ध संत बाबा गुलाबचंद “आनंद” ने अघोर-पथ को अवधूत-मत का पर्यायवाची माना है.शिवजी महाराज के पांच मुखों में एक मुख अघोर का भी है .
अघोरियों के स्थान –
पुराने समय में इनके केंद्र आबू,गिरनार ,कामख्या ,बोधगया,बनारस तथा हिंगलाज थे .इस पथ के पवर्तक किनाराम जी के गुरु कालूराम जी गिरनार के कापालिक थे.इस मत के साधुओं की आजीविका का आधार खेती तथा भिक्षाटन है.इस मत में स्त्रियों को भी दीक्षा देने की पद्धति अपनाई गयी है. लक्ष्मी देवी ने अवधूतों में स्त्रियों को दीक्षा देने की पद्धति अपनाई.समाधि पूजा अघोरियों में प्रचलित रही है.पुराने समय में कुत्ता,बिल्ली,बन्दर के साथ भोजन शवमांस भंजन तथा मिटटी-पात्र में मदिरा और जल पीने में आनंद प्राप्त करना दिन-चर्या में शामिल रहा है.कुछ दिग्भ्रमित साधकों ने घृणित-आचारों को इसमें समाहित कर अघोर को विद्रूप रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की.
अघोरियों के सिद्धांत एवं दर्शन –
औघड़ का दूसरा नाम प्राणवायु है.औघड़ ही अज्ञात है ,जो हम सबके अभ्यंतर में व्याप्त हैउस अज्ञात को पहचान लेने से ज्यादा आनंद उसे खोजने में है.औघड़ ही आत्माराम एवं अनन्त का दूसरा नाम है.औघड़ अंतर्मुखी होते हैं,औघड़ों की देह-बुद्धि नहीं होती आत्म-बुद्धि होती है.वह स्वयं प्राण-वायु है.वह न ही नर है ना नारी है ,दोनों है और दोनों से अलग है.औघड़ एक ऐसी स्थिति को प्राप्त करता है,विभूषित करता है और साधना के शिखर पर पहुंचा होता है. अघोर का धार्मिक सम्प्रदाय स्वरूप की प्रस्तुति “शिव” से है.
सरल शब्दों में यह निराकार है किन्तु शरीर है तब साकार है.औघड़ को उसकी कृपा से ही जाना जा सकता है.
अघोर मत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि औउर प्रेरणा-स्त्रोत मब वेद,उपनिषद और तंत्र-शास्त्र शामिल रहे हैं.औघड़ों के अनुसार मन्त्र में बहुत बड़ी शक्ति है.औघड़ साधुओं को सिद्ध समझा जाता है जनता का सामान्यतः यह विश्वास होता है की वे अपनी सिद्धि के प्रभाव से रोगों का निवारण कर सकते हैं.
औघड़,तंत्र और तंत्रशास्त्र –
तंत्रशास्त्र को आगम भी कहते हैं.यह आगम मार्ग,निगम (वेद-मार्ग) से भिन्न माना जाता है.तांत्रिकों की यह धारणा है की कलियुग में बिना तंत्र -प्रतिपादित मार्ग का निस्तार नहीं है.”रूद्यामल तंत्र” में अनेक श्लोक ऐसे हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है की तंत्रशास्त्र एवं अथर्ववेद में घनिष्ठ सम्बंध है.
तंत्रशास्त्र एक सम्पूर्ण शास्त्र है,जिसमें मस्तिष्क,ह्रदय तथा कर्मेन्द्रियों (ज्ञान,इच्छा तथा क्रिया ) तीनों के लिए प्रचुर सामग्री मिलती है.तंत्र -मार्ग सहज एवं स्वाभाविक होने के कारण सुगम भी है.इसमें अन्य शास्त्रों की भाँती अध्ययन-अध्यापन,तर्क-वितर्क आदि की अपेक्षा नहीं होती.कभी-कभी तंत्र -शास्त्र को मन्त्र-शास्त्र भी कहते हैं .साधन-प्रधान होने के कारण इसे साधन तंत्र भी कहते हैं.
तंत्रशास्त्र की मान्यता है की देह ही सभी पुरुषार्थों का साधन है.अतः देह -धन की रक्षा करनी चाहिए,जिससे पुण्य कर्मों के आचरण में सुविधा हो.तांत्रिकों का विशवास है की जब तक वैदिक रीति से साधना रुपी वृक्षों में फूल उगेंगे तब तक तांत्रिक पद्धति से उसमें फल लगने लगेंगे.
पञ्च-मकार –
मद्य,मांस,मीन ,मुद्रा ,मैथुन ये पांच-मकार कहे गए हैं इनका अर्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ
मद्य- का तात्पर्य उस सुधा से है,जो योगावस्था में ब्रम्हरंध्रस्थित सहस्त्रदल कमल से टपकती है.खेचरी मुद्रा द्वारा इसका पान संभव है.
मांस – पुण्य-पाप रुपी पशु की ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा हत्या और मन को ब्रम्ह में विलीन करना,यही मांस-भक्षण है.
मत्स्य- इड़ा और पिंगला में प्रवाहित होए वाले श्वास और प्रश्वास मत्स्य हैं.इनका प्राणायाम द्वारा सुषुम्ना में संचार यही मत्स्य-भक्षण है.
मुद्रा-असत -संग का मुद्रण,अर्थात निरोध मुद्रा है.
मैथुन- सुषुम्ना में प्राणों का सम्मिलन अथवा सहस्त्रार में स्थित शिव का मूलाधार में स्थित कुण्डलनी से मिलन मैथुन है.
एक औघड़ लीक से हटकर
लीक छोड़कर तीन चलें शायर,सिंह फ़कीर.
अघोर को बियाबान से समाज में लाने का श्रेय अघोरेश्वर अवधूत भगवान् राम जी को है,जिन्होंने अघोर को समाज में स्थापित किया.किनारामी परंपरा के इन संत को समाज ने एक औघड़ लीक से हटकर की संज्ञा दी.अघोर के पर्याय अघ्रणा के मानक को इन्होने कुष्ठ-रोगियों की सेवा के रूप में स्थापित किया.
मित्रों सिंहस्थ में पवित्र-भूमि भारत के सभी संतों का जमावड़ा होगा इसमें संत ,महंथ ,ज्ञानी,बुद्धिजीवी सभी शामिल होंगें लेकिन हमेशा की तरह अघोर-उपासकों का दर्शन एवं सत्संग सभी की आशा में रहेगा जो बहुत कठिन है.आप सभी से अनुरोध है बनाए हुए वेश की तरफ आकृष्ट हों लेकिन बिना खोजखबर लिए अपनी श्रद्धा समर्पित ना करें वर्ना दुष्परिणाम निश्चित है.आपको ऐसे कई वेशधारी मिलेंगे जो अपना नाम और प्रभाव दिखा,शमशान में साधना का उपक्रम प्रदर्शित आपको लुभाने अपना प्रभुत्व दिखाने की चेष्टा करेंगे लेकिन सावधान औघड़ इन सब दिखावे से दूर रहता है जो सहज है सरल है वह अघोर है.
धर्मपथ संस्थान सिहस्थ मेले में आपकी कुशलता एवं आध्यात्मिक संगम की कामना करता है.