नई दिल्ली, 16 जून (आईएएनएस)। देश में नई सरकार के गठन के बाद संसद का पहला सत्र, जो बजट सत्र भी है, सोमवार से शुरू होने जा रहा है। एक सवाल फिर फिजा में तैरेगा कि इस बार देश की तकरीबन आधी आबादी को उसका हक दिलाने के प्रति मौजूदा सरकार कितनी गंभीर है? सवाल उठना लाजिमी भी है, क्योंकि इस बार आधी आबादी की नुमाइंदगी लोकसभा में बढ़कर 14 फीसदी हो गई है और मांग 33 फीसदी की है।
नई दिल्ली, 16 जून (आईएएनएस)। देश में नई सरकार के गठन के बाद संसद का पहला सत्र, जो बजट सत्र भी है, सोमवार से शुरू होने जा रहा है। एक सवाल फिर फिजा में तैरेगा कि इस बार देश की तकरीबन आधी आबादी को उसका हक दिलाने के प्रति मौजूदा सरकार कितनी गंभीर है? सवाल उठना लाजिमी भी है, क्योंकि इस बार आधी आबादी की नुमाइंदगी लोकसभा में बढ़कर 14 फीसदी हो गई है और मांग 33 फीसदी की है।
यहां हम बात महिला आरक्षण विधेयक की कर रहे हैं, जिसे राज्यसभा ने 2010 में ही मंजूरी दे दी थी, लेकिन लोकसभा इस पर लगातार नौ साल मौन रही है।
महिलाओं के मुद्दे को लेकर मुखर रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता और सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की डायरेक्टर डॉ. रंजना कुमारी कहती हैं कि इस आरक्षण की मांग नहीं है, बल्कि महिलाओं के अधिकार का सवाल है। उन्होंने कहा कि महिलाओं को संविधान से बराबरी का दर्जा प्राप्त है, लेकिन वे लोकसभा और विधानसभाओं में महज 33 फीसदी प्रतिनिधित्व की मांग कर रही हैं।
हालांकि मौजूदा सरकार द्वारा इसे पास करवाने के मसले पर पूछे जाने पर वह कहती हैं कि अगर महिलाओं को उनको हक दिलाने की सरकार की मंशा होती तो इस विधेयक को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुवाई वाली राजग की पूर्व सरकार में ही लोकसभा में विधेयक पास करवाने की कोशिश की जाती।
डॉ. रंजना ने इस मसले पर आईएएनएस से बातचीत के दौरान कहा, “भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भी अपने चुनावी घोषणापत्र में इस विधेयक को शामिल किया था। हम पूरे पांच साल तक सरकार को याद दिलाते रहे, मगर सरकार लोकसभा में विधेयक नहीं लाई।”
उनसे जब पूछा गया कि इस बार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार है तो क्या वह महिला आरक्षण विधेयक को संसद की मंजूरी मिलने की उम्मीद करती हैं, तो उन्होंने कहा कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा में महिलाएं सिर्फ मां, बहन और पत्नी हैं, जिनका काम परिवार की सुख-सुविधा का ध्यान रखना है। मगर व्यक्ति के तौर पर शायद उन्हें महिलाओं को बराबरी का दर्जा या हक देना शायद मंजूर नहीं है। यही कारण है कि भाजपा की पिछली सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने में कभी दिलचस्पी नहीं ली।
डॉ. रंजना ने कहा, “मैं मानती हूं कि पिछली सरकार महिलाओं के लिए कई योजनाएं लाई, मगर महिला आरक्षण विधेयक पर विचार नहीं किया।”
उन्होंने हालांकि कहा कि महिला संगठनों की ओर से फिर सरकार पर दवाब बनाने की कोशिश जारी रहेगी।
हाल ही में ग्लोबल इंटरनेट मंच एपोलिटिकल द्वारा दुनिया की सबसे प्रभावकारी 100 महिलाओं की सूची में शामिल डॉ. कुमारी ने कहा, “हम फिर सरकार पर इस विधेयक को लोकसभा में पारित करवाने के लिए दबाव बनाएंगे। खासतौर से राज्य सरकारों की ओर से दबाव बनाने की कोशिश की जाएगी।”
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2019 में देशभर से 78 महिलाएं संसद पहुंची हैं, जिससे निचले सदन में उनका प्रतिनिधित्व 14 फीसदी हो गया है, जबकि ओडिशा से 21 में से सात महिला सांसद है जो लोकसभा में राज्य से 33 फीसदी प्रतिनिधित्व का दावा करती हैं।
डॉ. रंजना इसे सकारात्मक बदलाव का सूचक मानती हैं। उनका कहना है कि शिक्षा और रोजगार के प्रति महिलाओं के उन्मुख होने से समाज में निचले स्तर से बदलाव आ रहा है।
अधिकांश राज्यों में पंचायती राज निकायों में महलाओं को 50 फीसदी या उससे अधिक प्रतिनिधित्व दिया जा चुका है। मगर, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में उनकी 33 फीसदी आरक्षण की मांग अब तक पूरी नहीं हो पाई है, जबकि महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहले1996 में संसद में पेश किया गया था। उस समय समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने इस विधेयक का पुरजोर विरोध किया था।
विरोध के बाद विधेयक संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था। इसके बाद फिर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेपयी के कार्यकाल के दौरान विधेयक लोकसभा में पेश किया, लेकिन इस बार भी विधेयक पास नहीं हुआ। महिला आरक्षण विधेयक फिर 1999, 2002 और 2003 में फिर संसद में पेश किया गया, मगर इसे संसद की मंजूरी नहीं मिल पाई।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दौरान 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने विधेयक को राज्यसभा में पेश किया। इसके दो साल बाद 2010 में उच्च सदन ने इसे मंजूरी प्रदान की, लेकिन उसके बाद तकरीबन नौ साल बीत चुका है, लेकिन विधेयक को लोकसभा में पेश नहीं किया गया है।