कॉंग्रेस के नीति निर्धारकों को यह लग रहा है की जैसे सभी हिन्दू देशभक्त हैं और देशभक्ति की भावना के विपरीत कोई जा सकता है तो वह मुसलमानों को बरगलाया जा सकता है.मंगलवार को काँग्रेस की नेता सोनिया गाँधी ने भारत के मुसलमानों से अपील की कि वे एकजुट होकर नरेन्द्र मोदी को सत्ता में न आने दें।
इस परिस्थिति में विरोधाभास यह है कि मोदी ने, जिन्हें साम्प्रदायिक हिन्दू राजनीति का प्रतिनिधि माना जाता है, दूसरे धर्मों के प्रतिनिधियों के मत पाने के लिए अभियान चला रखा है और काँग्रेस पार्टी की नेता, जो समाज के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखने की बात करती हैं, मतदाताओं को साम्प्रदायिक आधार पर बाँटने की कोशिश कर रही हैं। इस स्थिति में सवाल यह पैदा होता है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कौन ज़्यादा नुक़सान पहुँचा रहा है — ’साम्प्रदायिक’ मोदी या धर्मनिरपेक्ष सोनिया गाँधी? रेडियो रूस के विशेषज्ञ और रूस के सामरिक अध्ययन संस्थान के विद्वान बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
काँग्रेस के नेता किसी भी क़ीमत पर नरेन्द्र मोदी की बढ़त को रोकने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह बात समझ में आती है क्योंकि भारत में होने जा रहे भावी आम चुनावों में काँग्रेस के इतिहास में काँग्रेस की सबसे भारी हार होने की सम्भावना है। पिछले अनेक दशकों से भारत में सत्ता पर उसका एकाधिकार बना हुआ था। यहाँ तक कि राजनीतिक विश्लेषक उसे ’सब को साथ लेकर चलने वाली पार्टी’ कहा करते थे। ’सब को साथ लेकर चलने वाली पार्टी’ के रूप में उसे जहाँ यह सम्भावना मिलती थी कि उसे मतदाताओं के सर्वाधिक मत मिला करते थे, वहीं उसे इसके कुछ नुक़सान भी हैं। सबसे बड़ा नुक़सान तो यही है कि जब पार्टी सम्पूर्ण समाज से जुड़ जाती है तो वह समाज के छोटे-छोटे वर्गों का प्रतिनिधित्व करना बन्द कर देती है। काँग्रेस पार्टी के पूरे इतिहास में सबको साथ लेकर चलने वाली पार्टी के रूप में उसका यह स्तर उसे धर्मनिरपेक्ष पार्टी बने रहने के लिए बाध्य करता था। अगर ऐसा नहीं होता तो बहुजातीय और बहुधार्मिक भारत में वह सभी का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ रहती। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों से काँग्रेस धीरे-धीरे ’सबको साथ लेकर चलने वाली पार्टी’ का अपना यह रूप खोती जा रही थी और भारतीय राजनीति में ऐसे दल सामने आकर अपना प्रभाव बढ़ाते जा रहे थे, जो समाज के किसी एक तबके या किसी एक इलाके या किसी एक धार्मिक ग्रुप का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इन दलों में सबसे ताक़तवर पार्टी थी और आज भी है — भारतीय जनता पार्टी, जिसे हिन्दुओं की साम्प्रदायिक पार्टी माना जाता है। लेकिन शायद भारतीय जनता पार्टी के नेता यह समझ रहे हैं कि सिर्फ़ समाज के सबसे बड़े वर्ग यानी हिन्दुओं के बल पर सामयिक सफलता तो प्राप्त हो सकती है, लेकिन देश में साम्प्रदायिकता बढ़ेगी और इससे देश की एकजुटता और अखण्डता खतरे में पड़ेगी। इसलिए ’हिन्दुत्व’ के अपने सिद्धान्त को न छोड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता नरेन्द्र मोदी ने अपना चुनाव प्रचार अभियान बिल्कुल दूसरे ही सिद्धान्तों के आधार पर चलाया। उन्होंने सबसे पहले उन आर्थिक सफलताओं पर ज़ोर देना शुरू किया, जो गुजरात ने उन सालों में पाई हैं, जबसे नरेन्द्र मोदी गुजरात के प्रधानमन्त्री बने हैं।
उनकी यह रणनीति मुसलमानों के बीच भी कामयाब रही है। पिछले कुछ महीनों में अनेक प्रमुख मुस्लिम राजनीतिज्ञ भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव में अनेक मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा किया है और प्रसिद्ध भारतीय पत्रकार एम० जे० अकबर भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हैं।
अब सोनिया गाँधी ने यह तय किया कि नरेन्द्र मोदी को उसी हथियार से मारा जाए, जिसे इस्तेमाल करने का आरोप अब तक काँग्रेस भारतीय जनता पार्टी पर लगाया करती थी। जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमण्डल से मुलाक़ात करने के बाद सोनिया गाँधी ने सभी मुसलमानों से एकजुट होने और भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ मतदान करने की अपील की।
इस परिस्थिति में बस, एक ही सवाल का जवाब नहीं मिल पा रहा है कि दोनों नेताओं में से कौनसा नेता भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखना चाहता है और कौनसा नेता समाज में साम्प्रदायिकता भड़का रहा है? ’साम्प्रदायिक’ नेता के रूप में जाने जाने वाले, लेकिन देश के सभी वर्गों के हितों का ख़याल रखने वाले नरेन्द्र मोदी या धर्मनिरपेक्ष सिद्धान्तों को मानने वाली तथा धार्मिक आधार पर मतदाताओं को मत देने के लिए उकसाने वाली सोनिया गाँधी?