राजनीति भी कितनी अजीब है। कब किस रंग में रंग जाए, नहीं पता। फिलहाल राजनीति की बयार ‘खाप पंचायत’ से ‘खाट पंचायत’ की ओर बह रही है! उप्र में लुटी खाटें किसकी खाट करेंगी, नहीं पता। अलबत्ता इतना जरूर है कि राजनीति अब घिसे-पिटे और बरसों पुराने जोधाओं, ज्योतिषियों और मठाधीशों के समीकरणों से निकलकर आईआईटी युग के रणनीतिकारों की ओर बढ़ रही है।
राजनीति भी कितनी अजीब है। कब किस रंग में रंग जाए, नहीं पता। फिलहाल राजनीति की बयार ‘खाप पंचायत’ से ‘खाट पंचायत’ की ओर बह रही है! उप्र में लुटी खाटें किसकी खाट करेंगी, नहीं पता। अलबत्ता इतना जरूर है कि राजनीति अब घिसे-पिटे और बरसों पुराने जोधाओं, ज्योतिषियों और मठाधीशों के समीकरणों से निकलकर आईआईटी युग के रणनीतिकारों की ओर बढ़ रही है।
स्वाभाविक बदलाव आएगा, आना भी चाहिए। हां, भले ही अभी पूरे देश में ‘खाट पंचायत’ की चर्चा हो रही हो, लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसी पंचायतें बरसों पुरानी रवायत है, जिसका उपयोग राजनीति की दशा-दिशा बदलने के लिए होती रही है। हां, इन पंचायतों में कोई बड़ा दिग्गज नहीं आया, सो ज्यादा चर्चा में नहीं आ पाई।
झाबुआ-अलीराजपुर में आदिवासियों के साथ नेताओं की ‘खाटला बैठक’ (भील बोली में खाट को खाटला कहते हैं) दशकों से होती आई हैं। खाटला बैठक वहां सियासी रणनीति का अहम हिस्सा होती हैं। भील बहुल इन दोनों जिलों में सत्ता में पहुंचने का सियासी रास्ता भी खाटला बैठकें बनती हैं।
हो सकता है, प्रशांत किशोर की टीम को यह प्रयोग उप्र में ग्रामीणों, विशेषकर दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक जो कि ज्यादातर बहुत गरीब हैं, नायाब फंडा लगा हो। इसके पीछे खाट के बहाने राजपाट की सोच भी हो सकती हो। ज्यादातर गरीब और दलित मतदाताओं को चुनाव से पहले नई खाट जरूर भाएगी। इसी बहाने खाट का कर्ज उतारने को अंतर्आत्मा की आवाज कहीं कांग्रेस की वैतरणी ही बन जाए!
भाजपा सांसद दिलीप सिंह भूरिया के आकस्मिक निधन के बाद, रतलाम-झाबुआ में नवंबर, 2015 के उपचुनाव में भाजपा की साख दांव पर थी। बावजूद तमाम कोशिशों के, भाजपा को करारी शिकस्त मिली और दिवंगत सांसद की बेटी निर्मला भूरिया, कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया से 88,877 मतों से हार गईं।
प्रशांत किशोर का एक खास सिपहसालार काफी दिनों से इस इलाके का जायजा ले रहा था, हो सकता है वहीं से ‘खाट पंचायत’ का आइडिया उत्तर प्रदेश में अपनाने का फैसला लिया गया हो।
देवरिया जिले के रुद्रपुर में हुई ‘खाट पंचायत’ का प्रभाव तो दिखा। भले ही खाट की खातिर लोग जुटे, लूटे और चले गए, जो नहीं ले गए उन्हें अगली सभा का इंताजार है। स्वाभाविक है, राहुल गांधी की उप्र में 2500 किलोमीटर लंबी यात्रा से वो लोगों से जरूर रू-ब-रू होंगे, सुनेंग, समझेंगे और सहानुभूति देंगे और लेंगे भी। जो मुद्दे वो उठा रहे हैं, सीधे-सीधे किसानों, गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों से जुड़े हैं।
कांग्रेस के पुराने रिश्तों और उप्र से लगाव की बात बड़ी बेलागी से कहकर, लोगों की दुखती नस पर हाथ रख राहुल, 27 वर्ष पहले जातिगत राजनीति का शिकार हुए कांग्रेसियों के चलते खोई सत्ता को पाने की कवायद को खाट के बहाने राजपाट तक पहुंचाने में कितने कामयाब होंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।
लेकिन राहुल गांधी की ‘खाट’ को अखिलेश का उप्र में ‘डिजिटल लोकतंत्र’ का आह्वान कितनी चुनौती देगा, देखना होगा। गाजियाबाद में हज हाउस के उद्घाटन पर उन्होंने कहा था कि ‘हम युवाओं को डिजिटल युग से जोड़ेंगे और डिजिटल लोकतंत्र लाएंगे, विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे और युवाओं को विकास की ओर लेकर जाएंगे।’
अखिलेश की घोषणा के मुताबिक, 18 वर्ष से ज्यादा आयु और दो लाख सालाना से कम आय वालों को मुफ्त स्मार्ट फोन तब दिया जाएगा, जब उनकी पार्टी दोबारा राजपाट संभालेगी। इसके लिए बाकायदा रजिस्ट्रेशन की तैयारियां भी शुरू कर दी गई हैं। एक सॉफ्टवेयर डेवलप होगा, जो यह काम करेगा। जाहिर है, सॉफ्टवेयर के जरिए सीधे मतदाताओं तक पहुंच होगी, क्योंकि उनका सारा ब्यौरा दर्ज होगा।
लेकिन अखिलेश शायद यह भूल गए कि पिछले चुनाव में छात्रों को मुफ्त लैपटॉप-टैबलेट बांटने के वादे के साथ सत्तासीन हुए और पहली कैबिनेट मीटिंग में ही ऐलान कर 12वीं पास 15 लाख विद्यार्थियों को लैपटॉप बांट भी दिए। वहीं, लोकसभा चुनाव में हारते ही योजना बंद हुई और केवल टॉपर्स को ही लैपटॉप दिए।
हां, टैबलेट की घोषणा जरूर कोरी साबित हुई। अब स्मार्ट फोन और डिजिटल लोकतंत्र के साथ इसी महीने के आखिर में वह फिर चुनावी रण में उतरेंगे।
इधर, दो बार सत्ता में रही बसपा ‘घोटालों की सरकार’ के रूप में बदनाम हुई और 2012 में सत्ता से बाहर हुई। इस बार ऐसा माना जा रहा है कि प्रमुख दावेदार वही होगी, लेकिन पार्टी के आंतरिक झंझावतों से जूझ रहीं बसपा प्रमुख मायावती आयाराग-गयाराम की राजनीति से परेशान हैं। उप्र की बिगड़ती कानून व्यवस्था को लेकर अखिलेश को घेरने के उनके मंसूबों को कामयाबी मिलने लगी थी, लेकिन इसी बीच बसपा का कुनबा बिखरना शुरू हुआ और पार्टी में सेंधमारी भी शुरू हो गई, जिससे परेशानी स्वाभाविक है। लेकिन क्या दलित-मुस्लिम एकजुटता का प्रयोग इस बार भी सफल हो पाएगा?
हो सकता है, इसी को प्रभावहीन करने के लिए मायावती के बारे में अपमानजनक भाषा का प्रयोग हुआ हो, अश्लील बातों से राजनीति में भूचाल लाने का प्रयास किया गया हो।
उप्र में समाजवादी पार्टी भी ‘मुस्लिम-यादव व पिछड़ा वर्ग’ को अपना बड़ा वोट बैंक और ताकत मानती रही है। लेकिन क्या इस बार ऐसा हो पाएगा? सपा में आजम खां के वर्चस्व के आगे किस मुस्लिम नेता को बढ़त मिली? फिर शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद ने अब तक हर मौके पर समाजवादी सरकार के खिलाफ मोर्चा ही खोला है, जिससे हवा का रुख काफी बदला नजर आ रहा है।
ऐसा लगता है कि दलित-मुस्लिम का झुकाव सपा की ओर कम है और वे अभी असमंजस की स्थिति में हैं कि किसकी तरफ जाएं?
भाजपा भी दावेदारी को लेकर आश्वस्त है। लोकसभा में 80 में से 71 सीटें जीतने का तिलिस्म न टूट पाए, इसको लेकर अमित शाह अपना ध्यान उप्र पर केंद्रित किए हुए हैं।
ऐसा लगता है कि भाजपा नेताओं के विस्फोटक बोल, बहुसंख्यकों को लुभाने के लिए बोले जाते हैं। बीच-बीच में हिंदुत्व की बात, स्वयंभू संतों, गुरुओं, बाबाओं के उवाच के बीच मुस्लिम-दलित व पिछड़े पर दांव आसान नहीं लगता। मंदिर-मस्जिद का झमेला इस बार चुनावी एजेंडे से बाहर है। ऐसे में भाजपा का विधानसभा के हर बूथ पर 20 यूथ का फंडा कितना कामयाब होगा?
इधर, कांग्रेस ने मुख्यमंत्री उम्मीदवार काफी पहले घोषित कर दिया, लेकिन भाजपा खामोश है। समीकरण बहुत हैं, रोज बदलते भी हैं। नेहरू के गढ़ इलाहाबाद में इसी साल 12-13 जून को भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से बड़ा संकेत जरूर दिखा।
इलाहाबाद के साथ हिंदुओं की अगाध श्रद्धा, गहरी आस्था और भावनाएं जुड़ी हैं। यहां हुई बैठक को, हिंदू जातिगत कार्ड का बड़ा दांव भी माना जा रहा है। नेता भी भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की चर्चा से नहीं चूके। वह स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही, उन्होंने इलाहाबद का प्रतिनिधित्व भी किया था। 1951 में कांग्रेस अध्यक्ष भी बने थे, लेकिन अधिक समय रह नहीं पाए, क्योंकि भाषायी राज्यों के संबंध में नेहरूजी से मतभेद हो गया, फलत: कांग्रेस से बाहर हो गए।
उप्र में राजनीति के त्रिकोण के बीच राहुल गांधी की खाट का चौपाया कितना कामयाब होगा, नहीं पता। लेकिन इतना जरूर है कि कांग्रेस हर संभव कोशिश कर रही है, ताकि लगभग तीन दशक बाद अपनी वजनदारी उस प्रदेश में दिखा सके, जिसके दम पर उसने देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए हैं, लेकिन अब एक अदद मुख्यमंत्री पद के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ रहा है।
जहां तक मतदाताओं का सवाल है, वे काफी समझदारी और चतुराई दिखा रहे हैं, लेकिन हवा के रुझान को लेकर स्पष्ट संकेत बिल्कुल नहीं दे रहे हैं। राम, रोटी, अगड़ा-पिछड़ा सबके लिए कुछ न कुछ हर पार्टी के पिटारे से निकलता दिख रहा है। उप्र के मतदाता की स्थिति कमोवेश कुछ ऐसी बनती जा रही है कि ‘लूट सके सो लूट, वोट के समय देखा जाएगा किसकी करें पूछ’।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)