नई दिल्ली: उत्तराखंड की तीर्थनगरी जोशीमठ में भूमि धंसने से लगभग 65 प्रतिशत घर प्रभावित हुए हैं. सरकारी एजेंसियों की ओर से जारी की गई एक रिपोर्ट में यह जानकारी सामने आई है.
इस साल 2 जनवरी से जोशीमठ-औली रोड के पास स्थित एक क्षेत्र में कई घरों और इमारतों में भूमि धंसने के कारण बड़ी दरारें दिखाई देने लगी थीं, जिससे 355 परिवारों को स्थानांतरित करना पड़ा.
स्थानीय निवासियों के अनुसार, भूमि धंसाव कई वर्षों से देखा गया था, लेकिन 2 जनवरी से 8 जनवरी तक यह अधिक गंभीर हो गया था.
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, एक 35 सदस्यीय टीम ने नुकसान का आकलन करने और प्रभावित क्षेत्रों की दीर्घकालिक रिकवरी और पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक सहायता की पहचान करने के लिए 22 अप्रैल से 25 अप्रैल तक ‘आपदा के बाद की जरूरतों का आकलन’ किया है.
टीम में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों, केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान और अन्य एजेंसियों के पेशेवर शामिल थे.
आकलन रिपोर्ट के मुताबिक, जोशीमठ में कुल 2,152 घरों में से 1,403 घर जमीन धंसने से प्रभावित हुए हैं और इन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘कुल 472 घरों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता है और 931 घरों की मरम्मत/पुनर्निर्माण की आवश्यकता है. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त घरों को न केवल भूस्खलन, बल्कि अन्य आपदाओं को झेलने की उनकी क्षमता बढ़ाने के लिए ‘बेहतर निर्माण’ सिद्धांतों के अनुरूप फिर से तैयार किया जाना चाहिए.’
रिपोर्ट में कहा गया है कि जोशीमठ में इमारतों को नुकसान के मुख्य कारणों में अच्छी गुणवत्ता वाली निर्माण सामग्री का इस्तेमाल नहीं करना, संरचनात्मक खामियां और खड़ी ढलानों पर इमारतों का निर्माण शामिल है.
इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि ईंटों या पत्थरों को एक साथ जोड़े रखने के लिए कमजोर मिट्टी-आधारित मोर्टार के उपयोग के कारण मामूली जमीन धंसने पर भी इमारतों को अधिक नुकसान हुआ.
कुछ इमारतों में उन्हें स्थिर रखने के लिए कंक्रीट (Reinforced Concrete/आरसी) या लकड़ी के बैंड जैसी मजबूत समर्थन संरचनाएं नहीं हैं. एजेंसियों ने कहा कि कुछ इमारतों की दीवारें बहुत लंबी हैं, जिन्हें अच्छी तरह से सपोर्ट नहीं दिया गया है और छतें हल्की होती हैं, जिससे जमीन हिलने पर क्षति होती है.
उन्होंने राज्य सरकार से मानसून के मौसम के अंत तक शहर में नए निर्माण पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने और मानसून के बाद जमीनी स्थितियों के पुनर्मूल्यांकन के बाद केवल हल्के वजन वाली संरचनाओं के लिए छूट की अनुमति देने का भी आग्रह किया.
रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि हालांकि भवन उप-नियम मौजूद हैं, लेकिन वे आवासीय भवनों के लिए अनिवार्य नहीं हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘लोग परमिट तभी प्राप्त करते हैं जब उन्हें ऋण या अन्य सरकारी जरूरतों की आवश्यकता होती है. जोशीमठ की वर्तमान स्थिति का एक प्रमुख कारण बिल्डिंग परमिट सिस्टम का अभाव है. अगर जोखिम-आधारित बिल्डिंग उप-नियम होते और मौजूदा इमारतें उनके अनुपालन में होतीं तो क्षति की सीमा कम होती और उनका पुनर्निर्माण कम खर्चीला होता.’
रिपोर्ट में पहचानी गई चिंता का एक अन्य मुद्दा शहर नियोजन की कमी और जोखिम भरे भूमि उपयोग मानचित्रों का अभाव है.
व्यापक विकास योजना की तत्काल आवश्यकता पर जोर देते हुए इसमें कहा गया है, ‘सड़कें बहुत संकरी हैं और आसपास शायद ही कोई खुली जगह है. यह शहर को अत्यधिक असुरक्षित बनाता है, क्योंकि आपातकालीन स्थितियों में पहुंच लगभग असंभव है.’
एजेंसियों ने अगले 10-15 वर्षों के लिए एक सुरक्षित और आपदा को संभालने में समर्थ जोशीमठ बनाने के उद्देश्य से एक संभावित योजना के विकास की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया.
1970 के दशक में भी जोशीमठ में भूमि धंसने की घटनाएं सामने आई थीं.
गढ़वाल आयुक्त महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने 1978 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसमें कहा गया था कि शहर एवं नीति और मणा घाटियों में बड़े निर्माण कार्य नहीं किए जाने चाहिए, क्योंकि ये क्षेत्र मोराइन (चट्टानों, तलछट और मिट्टी का एक समूह, जो ग्लेशियर द्वारा जमा किया जाता है) पर स्थित है.
यह हिमालयी शहर भूकंपीय क्षेत्र पांच (भूकंप के लिए सबसे संवेदनशील क्षेत्र) में स्थित है और भूस्खलन और अचानक बाढ़ का खतरा है.
मालूम हो कि इसी महीने आठ सरकारी संस्थानों की एक रिपोर्ट में उत्तराखंड के ‘डूबते शहर’ जोशीमठ की मिट्टी की क्षमता के बारे में कई टिप्पणियां की गई थीं. इसमें कहा गया था कि यह क्षेत्र उच्च तीव्रता वाले भूकंपों के प्रति संवेदनशील है.
इस रिपोर्ट के हिस्से बताते हैं कि इस संकट में भूमिका होने को लेकर नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) को क्लीनचिट दे दी गई है.