(धर्मपथ)-महाकाली की मूल प्रतिष्ठा औषधियों में मानी गई है। तन्त्रशास्त्र में इसका वर्णन है। प्राचीनकाल में तान्त्रिक विभिन्न जड़ी-बुटियों से औषधि बनाने का कार्य त्रयोदशी (धनतेरस) से लेकर अमावस्या (दीपावली) की अवधि में करते हैं। यह काली पूजन की अवधि है। मंत्र-सिध्दी की अवधि और तन्त्रसिध्दी की अवधि हैं। तुलसी पूजन, आंवले के वृक्ष का पूजन, आंवले के पेड़ के नीचे बैठ कर भोजन करना, यह सब कार्तिक मास में होता है। जिससे दैहिक, दैविक और भौतिक स्तर पर जीवन स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रह कर प्रकृति की अनुकम्पा मिलती रहे।
जीवन संजीवनी और काल की सिध्दि की अधिष्ठात्री महाकाली है। समृध्दि, वैभव, भौतिक सम्पन्नता और श्री की अधिष्ठात्री लक्ष्मीजी हैं। इन दोनों के सहयोग से ही जीवन की पूर्णता प्राप्त होती है। इसलिए इसी पर्व पर ‘धन्वन्तरी जयन्ती’ मनाई जाती है।
स्वास्थ्य रक्षा के नियम
भगवान धन्वन्तरी विष्णु के अवतार हैं। दीपावली काली की पूजा और महाकाली की पूजा का पर्व है। धनतेरस से लेकर भाईदूज तक का पूरा सप्ताह एक प्रकार से धनलक्ष्मी, स्वास्थ्य (धन्वन्तरी), औषधि (महाकाली) अन्नकूट (अन्नपूर्णा यम द्वितीया) यम की पूजा, आराधना का सप्ताह है।
तुलसी का सृजन पूरे कार्तिक माह में होता है। तुलसी प्राय: सबके घरों में समान रूप से पूजी जाती है। चार्तुमास और शरद पूर्णिमा के बाद यह पहली अमावस्या जाड़े की भूमिका प्रस्तुत करती है। गुलाबी ठंड का मौसम स्वास्थ्य लाभ के लिए सबसे अच्छा माना है। औषधि का उपयोग भी स्वास्थ्य के लिए अधिक रोग मुक्ति के लिए कम होता है। वास्तव में धनतेरस जहां लक्ष्मी वृध्दि का पर्व है, वहीं स्वास्थ्य वर्धन का भी है।
इन सारे पूजन, अर्चना आदि का अर्थ केवल उस चेतना का विकास, संवर्धन, उन्नयन करना है जिससे मन, बुध्दि, चित्त और अहंकार का स्वाभाविक विकास हो सके। प्रकृति की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए तुलसी पूजन, आकाशद्वीप पूजन इसका प्रतीक है। धन्वन्तरी जयन्ती का अर्थ प्रकृति की अनुकूलता प्राप्त करके, प्रकृति की असीम अनुकम्पा प्राप्त करना है। आयुर्वेद के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ शरीर और दीर्घायु से ही हो सकती है।
धन्वन्तरी चाहे देवता रहे हों या वैज्ञानिक अथवा अलौकिक मानव किन्तु इनता निश्चित है कि उन्होंने लोक कल्याण की भावना और मानव जाति के लिए जरा व्याधि से मुक्त करने का अभूतपूर्व वातावरण साधन क्रमबध्द करके एक महान आदर्श हमारे लिए प्रस्तुत किया है। आजे के आधुनिक वातावरण में स्वास्थ्य रक्षा के नियम एवं सिध्दांत को छोड़ कर हमारा शरीर बीमारियों का घर बनता जा रहा है। रोग निवारण हेतु चिकित्सा और औषधि निश्चय ही आवश्यक है, परन्तु केवल रोगियों की रक्षा पर उचित ध्यान न दिया जाये तो धीरे-धीरे वे भी रोगी होंगे। इस प्रकार रोगियों की संख्या बढ़ती जाएगी और रोगों का कभी समाप्त न होने वाला क्रम बन जाएगा। इसलिए धनतेरस का पर्व ‘स्वास्थ्य दिवस’ के रूप में मनाकर लोग तन्दुरुस्ती का श्रेष्ठ महत्व समझें। दवाओं पर आश्रित रहने की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहने के प्रति सुचारू, सम्पन्न, जागरुक और सचेष्ट हो। जीवन में पूर्ण स्वस्थ रहना ही सबसे बड़ी सफलता और समस्त सफलताओं का आधार हैं। यह समझकर आराध्य देव का जन्म जिन आदर्शों के लिए हुआ है उन पर निष्ठापूर्वक चल कर उनके द्वारा प्रवर्तित सिध्दान्त हम अपनावें।
धन्वन्तरी का सर्वप्रथम उल्लेख महाभारत एवं पुराणों से प्राप्त होता है। विष्णु पुराण में भी बताया है कि समुद्र मंथन के बाद भगवान धन्वन्तरी अमृत से भरा कलश धारण किए हुए निकले हैं। भागवत पुराण में ही धन्वन्तरी को भगवान विष्णु को बारहवां अवतार बताया है। सुश्रुत संहिता में दिवोदास धन्वन्तरी ने सुश्रुत आदि ऋषियों को उपदेश करते हुए बताया है कि मैं ही आदिदेव धन्वन्तरी हूं और पृथ्वी पर आयुर्वेद के उपदेश हेतु अवतरित हुआ हूं।आजकल प्राय: धनतेरस लक्ष्मी पूजन का शुभारम्भ मानकर सोना-आभूषण आदि खरीदकर पूजन करते हैं। यह लक्ष्मी वृध्दि के प्रतीक रूप में मानकर हम उस सारगर्भित महत्व को भूल गये कि वास्तविक में धन क्या है? धन की पूजा का अर्थ क्या है? इसलिए धरतेरस को सोना-आभूषण की खरीदी तक सीमित कर हम बड़ी भूल करते हैं।
इस मांगलिक कार्य शुभ कार्य पर किए जाने वाले कार्यों का स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बड़ा महत्व है। यह कार्य मन, आत्मा और ज्ञानेन्द्रिय को प्रसन्न करने वाले होते हैं। आयुर्वेद ने स्वस्थ शरीर को ही धन माना है। ‘पहला सुख निरोगी काया और दूजा सुख घर में माया’ लक्ष्मीजी को दूसरा दर्जा दिया है। धन-दौलत को जड़ माना है। स्वस्थ शरीर को ही सुख माना है। ऋषिमुनियों के द्वारा धनतेरस को प्रथम धन्वन्तरी पूजन में भगवान से स्वस्थ रहने की प्रार्थना करने और दीपावली पर लक्ष्मीजी की पूजा-अर्चना को कहा है। धनतेरस अर्थात भगवान ‘धनवन्तरी जयन्ती’ का अर्थ आयुर्वेद ‘विद्या का पूजन’ और विद्या पूजन का अर्थ-प्रकृति, औषधि वनस्पति और इन सबसे बढ़कर प्रकृति को गोद में उपजे प्राकृतिक निधियों का पूजन। प्रकृति की असीम अनुकम्पा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन। प्रकृति के साथ सहचर्या विष्णु का है और लक्ष्मी के पति विष्णु हैं। महाकाली का वत्सल रूप विष्णु के साथ रचता है और श्री के साथ विष्णु स्वरूप विराजमान रहते हैं। धन्वन्तरी स्वयं विष्णु के अवतार माने गये हैं। यही विष्णु जो सृष्टि के पालक और रक्षक हैं। यही विष्णु जो लक्ष्मीपति हैं। श्री के साथ स्वास्थ्य और स्वस्थ होने के लिए औषधि चाहिए। स्वस्थ का अर्थ है-’दीघार्यु’ और श्री का अर्थ ‘पुरुषार्थ’ का तेज। धन्वन्तरी जिस अमृत कलश के साथ समुद्र मन्थन से अवतरित हुए थे उनमें इन तीनों का समन्वय था।
सर्जरी के जनक
समस्त प्राणियों का कष्ट दूर करने, रोग पीड़ा से ग्रसित मानव समुदाय की जीवन रक्षा के लिए परमात्मा ने स्वयं धन्वन्तरी के रूप में अवतरित होकर जनकल्याण के लिए समुद्र मन्थन से अमृत कलश लिए प्रादुर्भाव हुए और संसार में शल्य तंत्र को पूर्णत: विकसित किया। आज संसार में शल्य तन्त्र (सर्जरी) आयुर्वेद की देन है।