रांची, 15 सितंबर (आईएएनएस)। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव को इस बात का मलाल है कि हाल के वर्षो में आदिवासियों की 50 फीसदी से भी ज्यादा जमीन विभिन्न कारणों से इन वर्षो में अधिग्रहीत कर ली गई। इससे लाखों आदिवासी विस्थापित व अधिकार विहीन हो गए। इसके अलावा उन्हें पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिला।
रांची, 15 सितंबर (आईएएनएस)। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव को इस बात का मलाल है कि हाल के वर्षो में आदिवासियों की 50 फीसदी से भी ज्यादा जमीन विभिन्न कारणों से इन वर्षो में अधिग्रहीत कर ली गई। इससे लाखों आदिवासी विस्थापित व अधिकार विहीन हो गए। इसके अलावा उन्हें पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिला।
झारखंड निवासी उरांव ने बातचीत में आईएएनएस को बताया, “जनजातीय समुदाय का असली दुख भूमि अधिग्रहण है। उनकी आधी से अधिक जमीन उद्योग लगाने, खनन, कृषि परियोजनाओं और अन्य कार्यो के लिए अधिग्रहीत कर ली गई। इसकी वजह से धीरे-धीरे लाखों आदिवासी आबादी विस्थापित हो रही है। उनकी दयनीय स्थिति को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।”
उन्होंने कहा, “पूरे देश में आदिवासियों की जमीन आर्थिक विकास के लिए अधिग्रहीत की गई है जो कि गलत है। जनजातीय समुदाय की भूमि की रक्षा करने के लिए कानून है, लेकिन इस कानून को सही ढंग से लागू नहीं किया गया। यह कारण है कि आदिवासी अधिकारहीन हुए जा रहे हैं।”
उरांव केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग-1) की पहली सरकार में जनजातीय मामलों के राज्यमंत्री मंत्री थे।
उरांव ने भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) की नौकरी छोड़कर वर्ष 2004 में लोकसभा चुनाव लड़ा था और जीत हासिल की थी।
उन्होंने कहा, “यह बहुत चिंता की बात है कि जब देश आजाद हुआ तो जनजातीय लोग भूमि के मालिक थे। इतने वर्षो में उनकी स्थिति बेहतर होने की बजाय और खराब हो गई।”
उरांव ने कहा, “लगभग हर राज्य में आदिवासियों की भूमि की रक्षा करने का प्रावधान है। इसके बावजूद उनकी भूमि अधिग्रहीत की गई।”
उन्होंने राउरकेला, भिलाई और बोकारो इस्पात कारखाने, रांची के हैवी इंजीनियरिंग कार्पोरेशन और नर्मदा और सरदार सरोवर परियोजनाओं का उदाहरण दिया, जिनके लिए केवल आदिवासी ही विस्थापित किए गए।
उन्होंने कहा कि जनजातीय लोगों के पुनर्वास के पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए और उनका खयाल नहीं रखा गया।
अध्यक्ष ने कहा, “अविभाजित बिहार में विस्थापित जनजातीय लोगों की स्थिति तो सबसे खराब थी। भूमि अधिग्रहण ने आदिवासी समुदाय और उसकी संस्कृति को भी प्रभावित किया।”
उन्होंने आगे कहा, “जब कोई आदिवासी अपनी जमीन खोता है तो उसके साथ ही वह अपनी संस्कृति और परंपरा भी खोता है।”
उरांव ने कहा, “देश में भूमि अधिग्रहण के कारण जनजातीय लोगों के जीवित रहने पर भी बड़ा सवालिया निशान है।”
उरांव गैर आदिवासी नेता रघुबर दास के नेतृत्व वाली झारखंड सरकार पर वर्ष जमकर बरसे। उन्होंने 2013 में पारित केंद्रीय कानून का उल्लंघन करते हुए दो भूमि कानूनों- छोटानागपुर काश्तकारी कानून और संथाल परगना काश्तकारी कानून में बदलाव का प्रस्ताव लाए जाने की निंदा की।
उरांव के मुताबिक, केंद्रीय कानून कहता है कि यदि आदिवासियों की जमीन अधिगृहीत की जानी है तो ग्राम सभा या ग्राम परिषद की सहमति अनिवार्य है।
अध्यादेशों के द्वारा बदलाव के प्रस्ताव अभी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के यहां लंबित हैं।
उरांव ने केंद्र सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जनजाति का कोटा नहीं भरे जाने पर नाखुशी जताई और कहा कि जब अनुसूचित जनजाति की आबादी वर्ष 1971 में जहां 7.5 प्रतिशत थी, वह 2011 में बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई लेकिन केंद्र सरकार की सेवाओं में उनकी हिस्सेदारी करीब पांच प्रतिशत ही है।
उन्होंने कहा कि खाली पड़े पदों को सरकार को विशेष अभियान चलाकर भरना चाहिए।
उरांव ने झारखंड में आदिवासियों की घटती आबादी पर भी चिंता जताई। वर्ष 1951 में यह आबादी 32 प्रतिशत थी वह 2001 में घटकर 22 प्रतिशत रह गई।
उन्होंने कहा कि राज्य में बाहरी लोगों के आने से आदिवासियों की आबादी घट गई।