अनिल सिंह(भोपाल)– आज कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र कि घोषणा के समय एक पत्रकार ने सिंधिया से एक प्रश्न किया जिसका सम्बन्ध पूर्व में हो रही पत्रकार-वार्ताओं में हो रहे जवाब- सवाल को ले कर था।
हालांकि सिंधिया ने इस तरह ही रहे व्यवहार को लेकर यह कहा की मुझे नहीं पता कि क्या और कब हुआ लेकिन यदि हुआ है तो मैं माफ़ी मांगता हूँ।
इस प्रश्न को लेकर कई बड़े पत्रकार नाक- भौं सिकोड़ते दिखे लेकिन वह अंजाना पत्रकार सवाल उठा ही गया कि मीडिआ का उपयोग नेता मात्र अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कर रहे हैं,जब सवालों कि बौछार होती है तब वे पत्रकार वार्ता बंद कर उठ खड़े होते हैं।
कांग्रेस और भाजपा दोनों में हैं ये बयानवीर नेता
कांग्रेस में दिग्विजय सिंह इस बात के लिए बदनाम हैं,भाजपा में प्रभात झा का भी घिरने के बाद भागने में कोई जवाब नहीं भाजपा में तो देखने में आया है कि उनके मीडिया प्रभारी नेताओं के घिरने पर बचाव करते नजर आते हैं और पत्रकारों को चुप करते दिखाई पड़ते है।
दरअसल यह गलत परंपरा पद गयी है पत्रकारों के विरोध न करने कि वजह से,राजनेताओं में चालाक और दबंग नेताओं ने इस परंपरा को चालू किया है ,ये नेता अपनी बातों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए मीडिया को बुलाते हैं और अपनी बातें खत्म करने के बाद पत्रकार वार्ता ख़त्म हो गयी कह कर चल देते हैं,लोकतंत्र के लिए यह खतरनाक संकेत हैं.
पत्रकारों में भी बंटवारा है
पत्रकारों की व्यवसायिकता के दो रूप हैं एक वे जो अपनी व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते अपने संस्था के मालिकों के भावों को देखते हुए कार्य करते हैं और दूसरे वे श्रमजीवी पत्रकार जो पत्रकारिता कि धीमी पड़ती लौ को बचाये हुए हैं।
कुछ महीनों पहले हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे में यह बात सामने आयी थी कि भारत का श्रमजीवी या स्वतन्त्र पत्रकारिता में 148 वाँ स्थान है,यह स्थिति भारत के वर्तमान परिपेक्ष्य में पत्रकारिता को भयंकर भूलभुलैया में भटकने को मजबूर करती है।
वे पत्रकार जो बड़े समूहों से जुड़े हैं लेकिन आवश्यक नहीं कि वे देश के लिए पत्रकारिता करें लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति एवं अन्य पत्रकारों कि आर्थिक स्थिति में इतना बड़ा अंतर पैदा किया गया है की छोटे समूहों के पत्रकार तथा श्रमजीवी पत्रकार ,पत्रकारिता के स्थान पर अपनी गृहस्थी के अभावों से ही जूझते रहते हैं पत्रकारिता की धार उनकी कुंद करने कि साजिश के तहत यह हुआ है।
आज उस पत्रकार मित्र का यह क्रांतिकारी सवाल पत्रकारिता जगत में कई प्रश्न उत्पन्न कर गया भले ही यह सवाल गलत समय और गलत जगह उठाया गया माना गया लेकिन है तो सही ही और पत्रकारिता की धार बचाने हेतु इस पर मंथन भी आवश्यक है,क्या भूखे पेट अभावों में विकास की पत्रकारिता सम्भव है?जो समय है उसके साथ ही चलना होगा क्या सेना को देश हित के लिए अभावों में रख कर युद्ध लड़वाया जा सकता है नहीं वह समय आज नहीं है देश आजाद है गुलाम नही.……………………
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