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 अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल – हिंगलाज धाम | dharmpath.com

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अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल – हिंगलाज धाम

March 21, 2017 5:52 pm by: Category: धर्म-अध्यात्म Comments Off on अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल – हिंगलाज धाम A+ / A-

अघोर परंपराअघोरपथ के अनेक पुन्य स्थलों में से एक हिंगलाज वर्तमान पाकिस्तान देश के बलुचिस्तान राज्य में अवस्थित है । यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से १२० किलोमीटर और समुद्र से २० किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर पश्चिम में १२५ किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है । यह अँचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है । इस स्थल के श्रद्धालु पूरे भारतवर्ष में पाये जाते हैं ।

भारतवर्ष के ५२ शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है । कथा है कि एक बार महाराज दक्ष प्रजापति यज्ञ करा रहे थे । उन्होने समस्त देवताओं को निमंत्रित किया था । उस यज्ञ में उनके अपने जामाता शिव जी को आमंत्रित नहीं किया गया था । दक्ष पुत्री, शिव भार्या दाक्षायनी, सती शिव जी के मना करने पर भी अनिमन्त्रित ही पिता के घर यज्ञस्थल पहुँच गईं । महाराज दक्ष के द्वारा शिव जी को सादर आमन्त्रित कर पूजन करने के सती के प्रस्ताव को अमान्य कर देने पर इसे अपना और अपने पति का अपमान माना और सती क्रुद्ध हो गईं । उन्होने अपमान की पीड़ा में योगाग्नि उत्पन्न कर अपना शरीर दग्ध कर त्याग दिया । सती के इस प्रकार से शरीर त्याग देने से शिव जी को मोह हो गया । शिव जी ने सती के अधजले शव को कन्धे पर उठाये उन्मत्त होकर इधर उधर घूमने लगे । शिव जी की मोहाभाविष्ट दशा से चिन्तित देवताओं ने भगवान विष्णु से उपाय करने की प्रार्थना की । भगवान विष्णु अपने आयुध सुदर्शन चक्र से शिव जी के कन्धे पर के सती के शव को खण्ड खण्ड काटकर गिराने लगे । हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कटकर गिरा । अन्य इक्यावन शक्तिपीठों में सती के विभिन्न अँग कटकर गिरे थे । इस प्रकार ५२ शक्तिपीठों की स्थापना हुई ।

जनश्रुति है कि रघुकुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी शक्ति स्वरुपा सीता जी के साथ रावण बध के पश्चात ब्रह्म हत्या दोष के निवारण के लिये हिंगलाज गये और देवी की आराधना किये थे । यह भी कहा जाता है कि पुरातन काल में इस क्षेत्र के शासक भावसार क्षत्रीयों की कुल देवी हिंगलाज थीं । बाद में यह क्षेत्र मुसलमानों के अधिकार में चला गया । यहाँ के स्थानीय मुसलमान हिंगलाज पीठ को “बीबी नानी का मंदर” कहते हैं । अप्रेल के महीने मे स्थानीय मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैं और इस स्थान पर आकर लाल कपड़ा चढ़ाते हैं, अगरबत्ती जलाते है, और शिरीनी का भोग लगाते हैं । वे इस यात्रा को “नानी का हज” कहते हैं । आसपास के निवासी जहर से सम्बिधित विमारीयों के निवारण के लिये इस स्थल की यात्रा करते हैं, माता का पूजन , प्रार्थना करते हैं । उनकी मान्यता है कि हिंगुल में जहर को मारने की शक्ति होती है अतः हिंगलाज देवी भी जहर से सम्बंधित रोगों से त्राण दिलाने में सक्षम हैं ।

हिंगलाज देवी की गुफा रंगीन पत्थरों से निर्मित है । गुफा में प्रयुक्त विभिन्न रंगों की आभा देखते ही बनती है । माना जाता है कि इस गुफा का निर्माण यक्षों के द्वारा किया गया था, इसीलिये रंगों का संयोजन इतना भव्य बन पड़ा है । पास ही एक भैरव जी का भी स्थान है । भैरव जी को यहाँ पर “भीमालोचन” कहा जाता है ।

अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी की हिंगलाज यात्रा की कथा हमें प्राप्त होती है । कथा कुछ इस प्रकार हैः

“उन दिनों बाबा कीनाराम जी गिरनार में तप कर रहे थे । भ्रमण के क्रम में एकबार बाबा कच्छ की खाड़ियों, दलदलों को, जिनको पार करना असम्भव है, अपने खड़ाऊँ से पार कर हिंगलाज जा पहुँचे । हिंगलाज पहुँचकर बाबा कीनाराम मंदिर से कुछ दूरी पर घूनी लगाये तपस्या करने लगे । बाबा कीनाराम जी को हिंगलाज देवी एक कुलीन घर की महिला के रुप में प्रतिदिन स्वयं भोजन पहुँचाती रहीं । बाबा की धूनी की सफाई, व्यवस्था १०,११ वर्ष के बटुक के रुप में, भैरव स्वयं किया करते थे । एक दिन महाराज श्री कीनाराम जी ने पूछ दियाः ” आप किसके घर की महिला हैं ? आप बहुत दिनों से मेरी सेवा में लगी हुई हैं । आप अपना परिचय दीजिये नहीं तो मैं आप का भोजन ग्रहण नहीं करुँगा ।” मुस्कुराकर हिंगलाज देवी ने बाबा कीनाराम जी को दर्शन दिया और कहाः ” जिसके लिये आप इतने दिनों से तप कर रहे हैं, मैं वही हूँ । मेरा अब समय हो गया है । मैं अपने नगर काशी में जाना चाहती हूँ। अब आप जाइये और जब कभी स्मरण कीजियेगा मैं आप को मिल जाया करूँगी “। महाराज श्री कीनाराम ने पूछाः माता, काशी में कहाँ निवास करियेगा ? हिंगलाज देवी ने उत्तर दियाः मैं काशी में केदारखण्ड में क्रीं कुण्ड पर निवास करूँगी” । उसीदिन से ॠद्धियाँ महाराज श्री कीनाराम के साथ साथ चलने लगीं और बटुक भैरव की उस धूनी से महाराज श्री का सम्पर्क टूट गया । महाराज ने धूनी ठंडी की और चल दिये ।”

क्रीं कुण्ड स्थल वाराणसी में एक गुफा है । उक्त गुफा में बाबा कीनाराम जी ने हिंगलाज माता को स्थापित किया है । सामान्यतः यह एक गोपनीय स्थान है ।
इन दो स्थलों के अलावा हिंगलाज देवी एक और स्थान पर विराजती हैं, वह स्थान उड़ीसा प्रदेश के तालचेर नामक नगर से १४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । जनश्रुति है कि विदर्भ क्षेत्र के राजा नल माता हिंगलाज के परम भक्त हो गये हैं । उनपर हिंगलाज देवी की महती कृपा थी । एकबार पूरी के महाराजा गजपति जी ने विदर्भ नरेश नल से सम्पर्क साधा और निवेदन किया कि जगन्नाथ मंदिर में भोग पकाने में बड़ी असुविधा हो रही है, अतः माता हिंगलाज अग्नि रुप में जगन्न्थ मंदिर के रंधनशाला में विराजमान होने की कृपा करें । माता ने राजा नल द्वारा किया गया निवेदन स्वीकार कर लिया और जगन्नाथ मंदिर परिसर में अग्नि के रुप में स्थापित हो गईं । उन्हीं अग्निरुपा माता हिंगलाज का मंदिर तालचेर के पास स्थापित है ।

छत्तिसगढ़ में हिंगलाज देवी का शाक्त सम्प्रदाय में प्रचूर प्रचार रहा है । यहाँ शक्ति साधकों, मांत्रिकों को बैगा कहा जाता रहा है । इस अँचल में अनेक शक्ति साधकों के अलावा समर्थ आचार्य भी हुये हैं । उनमें से कुछ का नाम इस प्रकार हैः १, देगुन गुरु, २, धनित्तर गुरु, ३ बेंदरवा गुरु |इससे रुद्र के अँशभूत हनुमान इँगित होते हैं | ४, धरमदास गुरु | धरमदासजी कबीरपँथ के आचार्य थे | ५, धेनु भगत, ६, अकबर गुरु |आप मुसलमान थे | आदि । इन सब गुरुओं ने हिंगलाज देवी को सर्वोपरी माना है और बोल मंत्रों में देवी को गढ़हिंगलाज में स्थिर हो जाने का निवेदन करते हैं । हिंगलाज के सन्दर्भ का एक बोल मन्त्र दृष्टव्य हैः

” सवा हाथ के धजा विराजे, अलग चुरे खीर सोहारी,
ले माता देव परवाना, नहिं धरती, नहिं अक्कासा,
जे दिन माता भेख तुम्हारा, चाँद सुरुज के सुध बुध नाहीं,
चल चल देवी गढ़हेंगुलाज, बइठे है धेनु भगत,
देही बिरी बंगला के पान, इक्काइस बोल, इक्काइस परवाना,
इक्काइस हूम, धेनु भगत देही, शीतल होके सान्ति हो ।”

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